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________________ २. पन्चनमस्कारमन्त्रफलम् २-६, १७] ८७ शय्यायां पपात । तदवस्थाहेतुं विबुध्य तावत्सागरदत्त एव तद्गृहमायात् । सुदर्शनपितापृच्छत् किमिति तवात्रागमनमिति । सोऽवादीत् मम पुत्र्या तव पुत्रस्य विवाहं कुर्विति वक्तुमागत इति । ततो वृषभदासो मदिष्टमेव चेष्टितं त्वयेति भणित्वा श्रीधरनामानं ज्योतिविदमप्राक्षीत् विवादिनम् । ततस्तेन निरूपितम् । वैशाखशुक्लपञ्चम्यां विवाहोऽभूत्तयोरन्योन्यासक्तभावेन सुखमन्वभूतां सुकान्तनामानं. तनुजं चालभेताम् । एकदा नानादेशान् विहरन् समाधिगुप्तनामा परमयतिः संघेन सार्धमागत्य तत्पुरोधानेऽस्थात् । ऋषिनिवेदकाद्विबुध्य राजादयो वन्दितुमीयुर्वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य श्रेष्ठी सुदर्शनं राज्ञः समर्घ्य दिदीक्षे, जिनमत्यपि । आयुरन्ते समाधिना दिवं ययतुः । इतः सुदर्शनः सुकान्तं विद्याः सुशिक्षयन् सर्वजनप्रियो भूत्वा सुखेनास्थात् । तपातिशयं निशम्य कपिलभट्टवनिता कपिलासक्तचित्ता वर्तते । एकदा कपिले कापि याते सुदर्शनस्तद्गृहनिकटमार्गेण क्वापि गच्छन् कपिलया दृष्टो विज्ञातश्च । तदनु सखीं बभाण अमुं केनचिदुपायेनानयेति । तदनु सा तदन्तिकं जगाम अवदञ्च-हे सुभग, त्वन्मित्रस्य महदनिष्टं वर्तते, त्वं तद्वार्तामपि न पृच्छसीति । सोऽभणदहं न जानाम्यन्यथा किं शरीर सुदर्शनके वियोगसे सन्तप्त हो रहा था। वह भी घर वापिस जाकर शय्यापर लेट गई थी। उसकी इस दुरवस्थाके कारणको जान करके ही सागरदत्त वहाँ पहुँचा था। उसे अपने घर आया हुआ देखकर सुदर्शनके पिताने पूछा कि आपका शुभागमन कैसे हुआ ? उत्तरमें उसने कहा कि आप मेरी पुत्रीके साथ अपने पुत्रका विवाह कर दें, यह निवेदन करनेके लिए मैं आपके यहाँ आया हूँ। यह सुनकर वृषभदासने उससे कहा कि यह कार्य तो आपने मेरे अनुकूल ही किया है। तत्पश्चात् उसने श्रीधर नामक ज्योतिषीसे विवाहके मुहूर्तको पूछा। उसने विवाहका मुहूर्त बतला दिया। तदनुसार वैशाख शुक्ला पंचमीके दिन उन दोनोंका विवाह सम्पन्न हो गया। वे दोनों परस्परमें अनुरक्त होकर सुखका अनुभव करने लगे। कुछ समयके पश्चात् उन्हें सुकान्त नामक पुत्रको भी प्राप्ति हुई । एक दिन अनेक देशोंमें विहार करते हुए समाधिगुप्त नामक महर्षि संघके साथ आकर चम्पापुरके बाहर उद्यानमें स्थित हुए। ऋषिनिवेदकसे इस शुभ समाचारको ज्ञात करके राजा आदि उनकी वंदना करनेके लिए गये। उन सबने मुनिराजकी वंदना करके उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् वृषभदास सेठने विरक्त होकर अपने पुत्र सुदर्शनको राजाके लिए समर्पित किया और स्वयं दिनदीक्षा ग्रहण कर ली । जिनमतीने भी पतिके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वे दोनों आयुके अन्तमें समाधिके साथ मरकर स्वर्गको प्राप्त हुए । इधर सुदर्शनने सुकान्तको अनेक विद्याओंमें सुशिक्षित किया । वह अपने सद्व्यवहारसे समस्त जनताका प्रिय बन गया था । इस प्रकारसे उसका समय सुखपूर्वक बीत रहा था। इधर कपिल ब्राह्मणकी पत्नी कपिलाका चित्त सुदर्शनके अनुपम रूप-लावण्यको सुनकर उसके विषयमें आसक्त हो गया था। एक समय कपिल कहीं बाहर गया था। उस समय सुदर्शन उसके घरके पाससे कहीं जा रहा था। कपिलाने उसे देखकर जब यह ज्ञात किया कि यह सुदर्शन है तब उसने अपनी सखीसे कहा कि किसी भी उपायसे उसे यहाँ ले आओ। तदनुसार वह सुदर्शनके पास जाकर बोली कि हे सुभग ! आपके मित्रका महान् अनिष्ट हो रहा है और आप उसकी बात भी नहीं पूछते हैं। तब सुदर्शनने कहा कि मुझे १. प सुखमन्वसुतं श सुखमभूभूतां । २. श दिदिक्षे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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