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________________ :२-६, १७] २. पचनमस्कारमन्त्रफलम्६ अभयमती श्रेष्ठी वृषभदासो भार्या जिनमती तद्गोपालः सुभगनामा । स चैकदा वनाद् गृहमागच्छन्नरण्ये चतुःपथेऽस्तमनसमये शीतकाले ध्यानेन स्थितं कंचनजिनमुनिमद्राक्षीत, चिन्तयति स्मानेन शीतेनायं रात्री कथं जीविष्यति इति गृहं गत्वा काष्ठानि कृशानुं चादाय तत्समीपं जगाम । तत्राग्निसंधुक्षणेन तच्छीतबाधां निराकुर्वन् रात्रौ तत्रैवोषितः। सूर्योदये स मुनिहस्तावुद्धृत्य तं चात्यासन्नभव्यमुद्वीक्ष्य तस्मै उपदेशमदत्त । कथम् । गमनादिक्रियासु प्रथमतस्त्वया 'णमो अरहंताणं' भणितव्यमिति । स्वयं णमो अरहंताणं' इति भणित्वा गगनेनागात् । तथा तद्गमनदर्शनात्तन्मन्त्रे तस्य महती श्रद्धा बभूव तथैव भोजनादिक्रियासु प्रवर्तते च । तमेकदा श्रेष्ठी पप्रच्छ-त्वं किमिति सर्वत्र ‘णमो अरहंताणं' इति भणसीति । स तस्य स्वरूपमचीकथत् । तदा श्रेष्ठी तं प्रशंसितवान् सुग्रासादिकं च दापयामास । एकदाटव्यां तस्य कश्चिदकथयत्ते महिष्यो गङ्गापरतीरं गता इति । तन्निवर्तनार्थ यदा तत्र झम्पामादत्तं तदा तत्रत्यतीक्षणकाष्ठेनोदरे विद्धः। तत्र ‘णमो अरहंताणं' भणन् निदानं चकार, एतन्मन्त्रमाहात्म्येन श्रेष्ठिपुत्रो भविष्यामीति मृत्वा जिनमतीगर्भेऽस्थात् । तदा स्वप्ने सुदर्शनमेरुं कल्पतरूं सुरगृहं सागरं वह्नि चापश्यत् । भर्तुः कथिते सोऽवोचत् यावो पुरमें एक वृषभदास नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम जिनमती था। सेठके यहाँ एक सुभग नामका ग्वाला था। एक दिन वह ग्वाला वनसे घरके लिए वापिस आ रहा था । वहाँ उसे वनमें चौराहे पर एक दिगम्बर मुनि दिखायी दिये। उस समय सूर्य अस्त हो चुका था और समय शीतका था। ऐसे समयमें भी वे मुनि ध्यानमें स्थित थे। उन्हें देखकर उस ग्वालेने विचार किया कि ये ऐसे शीतकालमें रात्रिके समय कैसे जीवित रह सकेंगे ? यही विचार करता हुआ वह घर गया और वहाँसे लकड़ियों व आगको लेकर मुनिराजके पास फिरसे आया। उसने अग्निको जलाकर उनकी शीतबाधाको दूर किया और स्वयं रात्रिमें उन्हींके पास रहा। प्रातःकाल होनेपर जब सूर्यका उदय हुआ तब उन मुनि महाराजने अपने दोनों हाथों को उठाकर उस आसन्न भव्यकी ओर दृष्टिपात किया। उन्होंने उसे निकटभव्य जानकर यह उपदेश दिया कि तुम गमनादि कार्यों में प्रथमतः णमो अरहंताणं' इस मंत्रको बोला करो। तत्पश्चात् वे स्वयं भी 'णमो अरहंताणं' कहते हुए आकाशमार्गसे चले गये। इस प्रकारसे मुनिको जाते हुए देखकर उस ग्वालेकी उक्त मंत्रवाक्यके ऊपर दृढ़ श्रद्धा हो गई। तबसे वह भोजनादि समस्त कार्यों में उक्त मंत्रवाक्यके उच्चारणपूर्वक ही प्रवृत्त होने लगा। उसकी ऐसी प्रवृत्तिको देखकर एक दिन सेठने पूछा कि तू समस्त कार्यों के प्रारम्भमें ‘णमो अरहंताणं' क्यों कहता है ? तब उसने सेठसे उस पूर्व वृत्तान्तको कह दिया । तब सेठने उसकी बहुत प्रशंसा की। वह उसके लिए उत्तम ग्रास आदि ( भोजनादि ) देने लगा। एक दिन वनमें किसीने उस ग्वालेसे कहा कि तेरी भैंसे गंगाके उस पार चली गई हैं। यह सुनकर वह भैंसोंको वापिस ले आनेके विचारसे गंगामें कूद पड़ा। वहाँ उसका पेट एक पैनी लकड़ीसे विध गया। वहाँ उसने ‘णमो अरहंताणं' मंत्रका उच्चारण करते हुए यह निदान किया कि मैं इस मंत्रके प्रभावसे सेठका पुत्र हो जाऊँ। तदनुसार वह मरकर जिनमतीके गर्भ में स्थित हुआ। उस समय जिनमतीने स्वप्नमें सुदर्शनमेरु, कल्पवृक्ष, देवभवन, समुद्र और अग्निको ___१. श शुभगनामा। २. ब मुदीक्ष । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श तस्मादुपदेश। ४. प श पार। ५. फ ब झम्पामदत्त श सम्पामादत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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