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________________ : २-७, १५] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ७ [१५] प्रपङ्कमग्ना करिणी सुदुःखिता वियच्चरासादितपञ्चसत्पदा । भवान्तरे सा भवति स्म जानकी ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥७॥ अस्य कथा- अस्मिन् भरते यक्षपुरे राजा श्रीकान्तः देवी मनोहरी । तत्र वणिक सागरदत्त-रत्नप्रभयोः पुत्री गुणवती। तत्रैवान्यो वणिक् नयदत्तो भार्या नन्दना तत्सुतौ धनदत्तवसुदत्तौ । सा धनदत्ताय किल दातव्या। पुरेशेन मह्यमेव दातव्येत्याज्ञादायि । तं वने रन्तुं गतं वसुदत्तो जघान । तभृत्यैरितरोऽपि हतः । उभावपि कुरङ्गी बभूवतुः । स धनदत्तो देशान्तरं जगाम । सा आर्तेन मृत्वा कुरङ्गी जाता। तन्निमित्तं तौ युद्ध्वा मम्रतुः । ततो वनसूकरावास्ताम् , सा सूकरी बभूव । तौ तथा मृतिमुपजग्मतुः हस्तिनौ जातौ। सा करिणी जाता। तत्रापि तथा मृत्वा महिषो मर्कटौ कुरवको अविकावित्यादिजन्मसु बभ्रमतुः । सापि तदा तदा तज्जातीया स्त्री भवति स्म । तौ तथा च मम्रतुश्च । एकदा गङ्गातटे करिणी जाता कर्दमे मग्ना। कण्ठगतप्राणावसरे तरयाः सुरङ्गनामविद्याधरः[रेण] पञ्चनमस्कारान् दत्ता । तत्फलेन मृणालपुरेशशम्भोमन्त्रिश्रीभूति-सरस्वत्योर्वेदवतीसंज्ञा पुत्री जाता। सा चर्यार्थमागतमुनेरपंवादमवदत् पितृभ्यां निवारिता। दिना जो हथिनी अतिशय गहरे कीचड़में फंसकर अत्यन्त दुखित थी वह विद्याधरके द्वारा दिये गये पंचनमस्कारमंत्रके पदोंके पभावसे भवान्तरमें राजा जनककी पुत्री सीता हुई । इसीलिए हम उन पंचनमस्कारपदोंमें अधिष्ठित होते हैं ।। ७ ।। इसकी कथा इस भरतक्षेत्रके अन्तर्गत यक्षपुरमें श्रीकान्त नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम मनोहरी था । इसी नगरमें एक सागरदत्त नामका वैश्य था । उसकी पत्नीका नाम रत्नप्रभा था। इन दोनोंके गुणवती नामकी एक पुत्री थी। उसी नगरमें नयदत्त नामका एक दूसरा भी वैश्य रहता था। इसकी पत्नी का नाम नन्दना था । इनके धनदत्त और वसुदत्त नामके दो पुत्र थे। वह गुणवती इस धनदत्त के लिये दी जानेवाली थी। परन्तु राजाने आज्ञा दी कि वह मेरे लिए ही दी जाय । एक दिन जब राजा श्रीकान्त वनमें क्रीड़ार्थ गया था तब वसुदत्तने उसे मार डाला । इधर श्रीकान्तके सेवकोंने वसुदत्तको भी मार डाला। वे दोनों मरकर हिरण हुए । तब वह धनदत्त देशान्तरको चला गया। इससे वह गुणवती आर्त ध्यानसे मरकर हिरणी हुई। उसके निमित्तसे वे दोनों हिरण परस्परमें लड़कर मरे और वनके शूकर हुए। हिरणी मरकर शूकरी हुई । वे दोनों इसी प्रकारसे फिर भी मरणको प्राप्त होकर हाथी हुए और वह शूकरी हथिनी हुई। फिर भी उसी प्रकारसे वे दोनों मरकर क्रमशः भैंसा, बंदर, कुरवक ( सारस ? ) और मेंढा इत्यादि पर्यायोंको प्राप्त हुए । वह हथिनी भी उस-उस कालमें उन्हींकी जातिकी स्त्री हुई। फिर वे दोनों उसी प्रकारसे मरणको प्राप्त हुए। एक समय वह गुणवतीका जीव गंगाके किनारे हथिनी हुआ। यह हथिनी कीचड़में फंसकर मरणासन्न हो गई । उस समय उसे सुरंग नामके विद्याधरने पंचनमस्कारमंत्र दिया । उसके प्रभावसे वह मृणालपुरके राजा शम्भुके मंत्री श्रीभूतिकी पत्नी सरस्वतीके वेदवती नामकी पुत्री हुई। किसी समय एक मुनिराज चर्याके लिए आये। वेदवतीने उनकी १. ब कुरको । २. श चभ्रमतुः । ३. फ श जाताः। ४. श प्राणावसतस्याः । ५. ५ श शंवोर्मन्त्री ब शंवोमन्त्रि । ६. फौंमागत: मुनेश मागतामुने । ७. पंरपवादत्पितृभ्यां । Jain Education Fernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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