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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [२-६,१४: स्ववल्लभावियोगेन तापसोऽपि जातो यो हि युगलं दग्धवान् । स मृत्वा संवरनामा ज्योतिष्कसुरोऽजनि । स तं लुलोके, पूर्ववैरं स्मृत्वा घोरोपसर्गः कृतः । श्रासनकम्पात् धरणेन्द्रपद्मा. वत्यो समागतौ । धरणो मुनेरुपरि फणामण्डपं चकार । देवी फणामण्डपस्योपरिछत्रमधत्त । तदा स मुनिश्चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां संवरोपसर्गजयात् केवली जशे । तत्समवसरणविभूतिदर्शनात् पञ्चशततापसा दोक्षांचक्रुः । संवरः सम्यक्त्वं जग्राह । बहवः क्षत्रियाः श्रावकाः दीक्षिताश्च जाताः। पित्रादयः समय॑ ववन्दिरे । श्रीपार्श्वनाथः केवली श्रीधरप्रभृतिभिर्दशभिर्गणधरैः १० षष्टयुत्तरपञ्चशतपूर्वधरैः ५६० नवशतोत्तरनवसहस्रशिक्षकैः ६६१० चतुःशतोत्तरपञ्चसहस्रावधिशानिभिः ५४०० एकसहस्रकेवलिभिः १००० तावद्भिरेव वैक्रियद्धिभिः १०००. सप्तशतपञ्चाशदधिकमनःपर्ययधरैः ७५० षट्शतवादिभिः ६०० सुलोचनाप्रभृतिपञ्चत्रिंशत्सहस्रार्यिकाभिः ३५००० एकलक्षश्रावकजनैः १००००० त्रिलक्षश्राविकाभिः ३००००० असं ख्यातकोटिदेवदेवीभिस्तिर्यग्भिश्च चतुर्मासहोनसप्ततिवर्षाणि विहृत्य संमेदशिखरमारुह्य मासमेकं योगनिरोधं विधाय शुक्लध्यानमवलम्य श्रावणशुक्लसप्तम्यां मुक्तिमियायेति करास्मानौ सर्पावपि तन्माहात्म्येन देवगतिमलभेताम् , सद्दष्टेः किं प्रष्टव्यम् ॥६॥ था। उसका नाम महीपाल था। यह जब राजाके पदपर स्थित था तब उसकी प्रिय पत्नीका वियोग हो गया था । इस इष्टवियोगको न सह सकनेके कारण वह तापस हो गया था। इसीने उस सर्पयुगलको पंचाग्नि तप करते हुए दग्ध किया था। वह मरकर संवर नामका ज्योतिषी देव हुआ था । उसने जब भगवान् पार्श्वनाथको वहाँ ध्यानस्थ देखा तब पूर्व वैरका स्मरण करके उनके ऊपर भयानक उपसर्ग किया। उस समय आसनके कम्पित होनेसे धरणेन्द्र और पद्मावती वहाँ आ पहुँचे। तब धरणेन्द्रने भुनिके ऊपर अपने फणको मण्डपके समान कर लिया और पद्मावतीने उस फणरूप मण्डपके ऊपर छत्रको धारण किया। इस प्रकारसे वे मुनीन्द्र संवर देवके द्वारा किये गये उस उपसर्गको जीतकर चैत्र कृष्णा चतुर्थीके दिन केवल ज्ञानको प्राप्त हुए । पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के समवसरणकी विभतिको देखकर पाँच सौ तापस जैन धर्ममें दीक्षित हो गये । स्वयं उस संवर ज्योतिषीने सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लिया था। तथा बहुत-से क्षत्रिय ( राजा) श्रावक और मुनि हो गये । पिता अश्वसेन आदिने भगवान्की पूजा करके वंदना की । पार्श्वनाथ जिनेन्द्रने श्रीधर आदि दस (१०) गणधरों, पाँच सौ साठ (५६० ) पूर्वधरों, नौ हजार नौ सौ (९९०० ) शिक्षकों, पाँच हजार चार सौ ( ५४००) अवधिज्ञानियों, एक हजार (१०००) केवलियों, उतने (१०००) ही विक्रियाऋद्धिधारकों, सात सौ पचास ( ७५०) मनःपर्ययज्ञानियों, छह सौ (६००) वादियों, सुलोचना आदि पैंतीस हजार ( ३५०००) आर्यिकाओं, एक लाख (१०००००) श्रावकजनों, तीन लाख ( ३०००००) श्राविकाओं तथा असंख्यात करोड़ देव-देवियों व तियेंचोंके साथ चार मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया । तत्पश्चात् सम्मेदशिखरपर चढ़कर एक मास प्रमाण आयुके शेष रह जाने पर उन्होंने योगनिरोध किया और फिर शुक्लध्यानका आश्रय लेकर श्रावणशुक्ला सप्तमीके दिन मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकारसे जब कर स्वभाववाले सर्प और सर्पिणीने भी उस पंचनमस्कारमंत्रके माहात्म्यसे देवगतिको प्राप्त कर लिया तब भला सम्यग्दृष्टि जीवका क्या पूछना है ? वह तो स्वर्ग-मोक्षको प्राप्त करेगा ही ॥५॥ १. ब लुलोके तदुपसर्ग च प्रारब्धवान् । तदासनकंपात् । २. ब-समागते । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शनाथकैवल्यं । ४. फ ब प्रभृतिनवभिगणधरैः ५.ब पंचाशदुतरसप्तशतमनःपर्य यज्ञानिभिः । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शस्तार्यकादिभिः । ७. ब श्रावकैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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