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________________ ८२ पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [२-७, १५: न्तरैस्तस्याः गलरोगोऽभूज्जनेनोक्तं मुनिनिन्दनतोऽभूदिति । तदा व्रतानि जग्राह । सा शम्भुना याचिता । स मिथ्यादृष्टिरिति श्रीभूतिर्नादात्तदा तेन हतो दिवं गतः। सा मत्पिता त्वया हत इति जन्मान्तरैः ते विनाशहेतुर्भविष्यामीति तपसा दिवं गता। ततोऽवतीर्यात्रैव भरते दारुणग्रामे विप्रसोमशर्मज्वालयोस्तनुजा सरसाभिधा जाता। अतिविमतिना परिणीता। जारणकेन देशान्तरं जगाम । मार्गे मुनि ददर्श निनिन्द च । तत्पापेन तिर्यग्गतावाट । कदाचिश्चन्द्रपुरेशचन्द्रध्वज-मनस्विन्योश्चित्रोत्सवाजनि । मन्त्रिपुत्रकपिलेन सह देशान्तरमियाय। तमपि त्यक्त्वा विदग्धनगरेशकुण्डलमण्डितस्य प्रिया बभूव । पूर्वजन्मसंस्कारेण गृहीतश्रावकवता ततः सीता जाता । तत्स्वयंवरादिकं पद्मचरिते ज्ञातव्यमिति । मूढापि हस्तिनी तत्फलेनैवंविधासीत्, किमन्यो भूतिभाग न स्यात् ॥७॥ [१६] सुदुःखभाराक्रमितश्च तस्करो जलाशयोच्चारितपञ्चसत्पदः । तथापि देवोऽजनि भूरिसौख्यक स्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥८॥ निन्दा की। तब माता पिताने उसे इस निन्द्य कार्यसे रोंका। कुछ दिनोंके पश्चात् उसे गलेका रोग उत्पन्न हुआ । उसे जन-समुदायने मुनिनिन्दाका फल प्रगट किया । तब उसने व्रतोंको ग्रहण कर लिया । राजा शम्भुने उसे श्रीभूतिसे अपने लिए मांगा। परन्तु श्रीभूतिने मिथ्यादृष्टि होनेके कारण उसके लिए अपनी कन्या नहीं दी। इससे क्रुद्ध होकर राजाने उसे मार डाला । वह मरकर स्वर्गको प्राप्त हुआ । इधर वेदवतीने राजासे कहा कि तुमने चूंकि मेरे पिताको मार डाला है, इसीलिए में जन्मान्तरों में तुम्हारे विनाशका कारण बनूँगी । इस प्रकारसे खिन्न होकर उसने तपको स्वीकार कर लिया। उसके प्रभावसे वह स्वर्गको प्राप्त हुई । तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह इसी भरत क्षेत्रके अन्तर्गत दारुण ग्राममें ब्राह्मण सोमशर्मा और ज्वालाके सरसा नामकी पुत्री हुई । उसका विवाह अतिविभूतिके साथ कर दिया गया था। परन्तु वह एक जार (व्यभिचारी) पुरुषके साथ देशान्तरको चली गई । मार्गमें उसने मुनिको देखकर उनकी निन्दा की। इस पापसे उसे तिर्यञ्चगतिमें परिभ्रमण करना पड़ा। किसी समय वह चन्द्रपुरके स्वामी चन्द्रध्वजे और मनस्विनीके चित्रोत्सवा नामकी पुत्री हुई। वह मंत्रीके पुत्र कपिलके साथ देशान्तरमें चली गई। फिर उसको भी छोड़ करके वह विदग्धपुरके राजा कुण्डलमण्डितकी प्रिया हो गई। तत्पश्चात् पूर्वजन्मके संस्कारसे उसने श्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया । अन्तमें वह सीता हुई। उसके स्वयंवर आदिका वृत्तान्त पद्मचरित्रसे जानना चाहिए। इस प्रकार जब अज्ञान हथिनी भी पंचनमस्कारमंत्रके प्रभावसे उक्त वैभवको प्राप्त हुई है तब फिर दूसरा कौन उसके प्रभावसे वैभवशाली न होगा ? सब ही उसके प्रभावसे यथेष्ट वैभवको प्राप्त कर सकते हैं ॥७॥ जो दृढ़सूर्य चोर शूलीके दुःसह दुखसे अतिशय व्याकुल होकर यद्यपि जलपानकी आशासे ही पंचनमस्कारमंत्रके पदोंका उच्चारण कर रहा था, फिर भी वह उसके प्रभावसे देव पर्यायको प्राप्त करके अतिशय सुखका भोक्ता हुआ। इसीलिए हम उन पंचनमस्कारमंत्रके पदोंमें अधिष्ठित होते हैं ॥८॥ १. ५ श शंवुना ब शांतुना। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शकमतश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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