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________________ प्रायश्चित्त ० छेदोवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण जिणाणं पुण, मूलंर्ती अट्टहा होति ॥ परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ठ होंति पच्छित्ता । थेराण जिणाणं पुण, छव्विध छेदादिवज्जं वा ॥ आलोयणा विवेगे य, तइयं तु न विज्जती । सुहुमे य संपराए, अधक्खाए तथेव य ॥ (व्यभा ४१८४ - ४१९२ ) निग्रंथ और प्रायश्चित्त - आचारविशुद्धि की तरतमता के आधार पर निर्ग्रथ के पांच प्रकार हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रथ और स्नातक। इनके प्रायश्चित्त का क्रम इस प्रकार है पुलाक निर्ग्रथ को प्रथम छह प्रायश्चित्त दिए जाते हैं- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग और तप । • बकुश और प्रतिसेवनाकुशील - ये दोनों स्थविरकल्प में होते हैं। इन दोनों प्रकार के निर्ग्रथों के दस तथा यथालंदकल्पी और जिनकल्पी के लिए प्रथम आठ प्रायश्चित्त विहित हैं। o निर्ग्रथ (वीतराग) के लिए आलोचना और विवेक तथा स्नातक (केवली) के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त का विधान है। संयत और प्रायश्चित्त-संयत के पांच प्रकार हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात । • स्थविरकल्पी सामायिक संयत के छेद और मूल को छोड़कर आठ तथा छेदोपस्थापनीयसंयत के दस प्रायश्चित्त होते हैं। ० जिनकल्पी सामायिक संयत के तपपर्यंत छह तथा छेदोपस्थापनीय संत के मूलपर्यंत आठ प्रायश्चित्त होते हैं। ० परिहारविशुद्धि स्थविरकल्पी के लिए प्रथम आठ तथा जिनकल्पी के लिए छेद आदि वर्जित प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है। सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्री के लिए आलोचना और विवेक - ये दो प्रायश्चित्त विहित हैं। ३६. कर्मबंध हेतुक प्रवृत्ति और प्रायश्चित्त ता जेहि पगारेहिं, बज्झती णाणणिण्हवादीहिं । णिक्कारणम्मि तेसू, वट्टंते होति पच्छित्तं ॥ कामं आउयवज्जा, णिच्चं बज्झति सव्वपगडीतो । जो बादरो सरागो, तिव्वासु तासु पच्छित्तं ॥ अहिकिच्च उ असुभातो, उत्तरपगडीतो होति पच्छित्तं । अनियाणेण सुभासु, न होति सद्वाणपच्छित्तं ॥ ( निभा ३३२२-३३२४) 0 Jain Education International ४१८ आगम विषय कोश - २ ज्ञानविन आदि कर्मबंध की हेतुभूत प्रवृत्तियों में निष्कारण प्रवृत्त होने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यद्यपि आयुष्य को छोड़कर शेष सब कर्मप्रकृतियों का बादरसंपराय (नौवें गुणस्थान ) पर्यंत नित्य बंध होता है—यह सही है, किन्तु तीव्र हेतुओं में प्रवृत्त होने पर ही प्रायश्चित्त आता है, मंद में नहीं। आठ मूल प्रकृतियों की ज्ञानप्रद्वेष आदि अशुभ उत्तर प्रकृतियों प्रायश्चित्त होता है । अनिदानपूर्वक की गई तीर्थंकर नाम गोत्र आदि शुभ प्रकृतियों का प्रायश्चित्त नहीं होता । ३७. पूर्व - उत्तर प्रायश्चित्त, उपस्थापना आदि में अंतर आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य । तत्तो च्चिय निज्जूढो, इधाणितो एहि किं न भवे ? ॥ तालुग्घाडिणि ओसावणादि विज्जाहि तेणगा आसि । एहिं ताउ न संती, तधावि किं तेणगा न खलु ॥ पुव्वि चोद्दसपुव्वी, एहि जहण्णो पकप्पधारी उ । मज्झिमगकप्पधारी, कह सो उ न होति गीतत्थो । पुव्विं सत्थपरिण्णा, अधीत पढिताइ होउवटुवणा । एहि छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा ॥ बितियम्मि बंभचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ॥ आयारस्स उ उवरिं, उत्तरझयणाणि आसि पुठिंव तु । दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंति उ ॥ मत्तंगादी तरुवर, न संति एपिंह न होंति किं रुक्खा । महजूहाहिव दप्पिय, पुव्वि वसभाण पुण एहिं ॥ पुव्वि कोडीबद्धा, जूहाओ नंदगोवमादीणं । एहि न संति ताई, किं जूहाइ न होंती उ॥ साहस्सी मल्ला खलु, महपाणा पुठिंव आसि जोहाओ । ते तुल्ला नत्थेहि, किं ते जोधा न होंती उ॥ पुव्विं छम्मासेहिं, परिहारेणं व आसि सोधी तु । सुद्धतवेणं निव्वितियादी एहि वि सोधी तु ॥ किध पुण एवं सोधी, जह पुव्विल्लासु पच्छिमासुं च । पुक्खरिणीसुं वत्थादियाणि सुज्झति तध सोधी ॥ एवं आयरियादी, चोहसपुव्वादि यासि पुवि तु । एहि जुगाणुरूवा, आयरिया होंति नायव्वा ॥ (व्यभा १५२८ - १५३९) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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