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________________ आगम विषय कोश-२ ४१९ प्रायश्चित्त प्राचीनकाल में नौवें पूर्व में आचारप्रकल्प था, उससे शोधि पुष्करणियों में वस्त्र साफ किये जाते थे। अब छोटे जलाशयों में भी की जाती थी-उसके आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता था। वस्त्रशुद्धि होती है। इसी प्रकार शोधि होती है। वर्तमान में उसी पूर्व से निर्मूढ आचारप्रकल्प (निशीथ) के आधार पहले चौदहपूर्वी आदि आचार्य होते थे। अब युगानुरूप दशापर प्रायश्चित्त दिया जाता है, शुद्धि होती है। कल्प-व्यवहारधर आचार्य होते हैं। यह सब ज्ञातव्य है। पहले विजय, प्रभव आदि चोर तालोद्घाटिनी, अवस्वापिनी ३८. प्रायश्चित्त का प्रयोजन : चारित्रसंरक्षण आदि आदि विद्याओं को जानते थे, अब वे विद्याएं नहीं हैं, फिर भी क्या पच्छित्तेण विसोही, पमायबहुयस्स होइ जीवस्स। आज चोर नहीं हैं? तेण तदंकुसभूतं, चरित्तिणो चरणरक्खट्ठा। पूर्वकाल में चौदहपूर्वी गीतार्थ होते थे। वर्तमान में आचार पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि ण चिट्ठती। प्रकल्पधर जघन्य और कल्प व्यवहारधर मध्यम गीतार्थ होता है। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो संचरित्तया॥ वह गीतार्थ तो है ही। चरित्तम्मि असंतम्मि, निव्वाणं पि ण गच्छती। प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा (आचारांग के प्रथम अध्ययन) निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥ का अर्थतः अध्ययन करने पर, सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती (निभा ६६७७-६६७९) थी। वर्तमान में षड़जीवनिका (दशवैकालिक के चौथे अध्ययन) के अध्ययन-पठन से उपस्थापना होती है। प्रमादबहुल प्राणी प्रायश्चित्त से विशोधि प्राप्त करता है। पहले मुनि आचारांग के लोकविजय नामक दूसरे अध्ययन के चारित्री के चारित्र की रक्षा के लिए प्रायश्चित्त अंकुश के समान है। पांचवें 'ब्रह्मचर्य' उद्देशक के आमगंधि सत्र पर्यंत (सव्वामगंधं प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र भी नहीं रहता। चारित्र के परिण्णाय, णिरामगंधो परिव्वए। २/१०८) सूत्रतः और अर्थतः पढ़ अभाव में तीर्थ सचारित्र नहीं रहता। चारित्र के अभाव में मुनि निर्वाण लेने पर पिण्डकल्पी होता था। वर्तमान में दशवैकालिक के पांचवें को प्राप्त नहीं होता। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है। अध्ययन 'पिण्डैषणा' को पढ लेने पर वह पिण्डकल्पी हो जाता है। (प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं-१ प्रमादजनित पहले आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढा जाता था। अब दोषों का निराकरण, २. भावों की प्रसन्नता, ३. शल्य रहित होना, दशवैकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है। ४. अव्यवस्था का निवारण, ५. मर्यादा का पालन, ६. संयम की सुषमसुषमा आदि कालखण्डों में मत्तंग आदि दशविध दृढ़ता और ७. आराधना। -तवा ९/२२) कल्पवृक्ष होते थे। अब वे वृक्ष नहीं हैं किन्तु आम्र आदि के वृक्ष ३९. अपराध रोग : प्रायश्चित्त औषध तो हैं ही। धण्णंतरितुल्लो जिणो, णायव्वो आतुरोवमो साहू। पहले वृषभों के दर्पित महायूथाधिप होते थे। अब वैसे वृषभ रोगा इव अवराहा, ओसहसरिसा य पच्छित्ता॥ नहीं हैं। पहले नन्दगोप आदि के पास करोड़ों गायों के यूथ थे। (निभा ६५०७) अब उतने नहीं हैं। पांच-दस आदि वृषभों और गायों के यूथ तो हैं ही। धन्वंतरितुल्य हैं तीर्थंकर, रोगीतुल्य है अपराधी साधु, पहले महाप्राणवान् साहस्रिकमल्ल (हजार व्यक्तियों को। रोगतुल्य है अपराध और औषधतुल्य है प्रायश्चित्त । (प्रायश्चित्त हराने की क्षमता वाले) योद्धा होते थे। आज उनके तुल्य योद्धा एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं हैं, किन्तु शक्ति से अनंतभाग हीन योद्धा हैं ही। नहीं दी जाती, किन्तु रोगनिवारण के लिए दी जाती है, इसी प्रकार ___पहले छहमासिक तप अथवा परिहारतप से शोधि होती प्रायश्चित्त भी अपराधों के उपशमन के लिए दिया जाता है।) थी। अब निर्विकृतिक आदि शुद्ध तप से शोधि हो जाती है। ४०. सापेक्ष-निरपेक्ष प्रायश्चित्त से तीर्थ-अव्यवच्छित्ति पहले महान् तप से और अब अल्प तप से शोधि हो जाती संघयण-धितीहीणा, असंतविभवेहि होंति तुल्ला तु। है। ऐसा क्यों? इस जिज्ञासा पर आचार्य कहते हैं-पहले महान निरवेक्खो जदि तेसिं, देति ततो ते विणस्संति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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