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________________ प्रायश्चित्त ४०२ आगम विषय कोश-२ गहियं वा परिट्ठवेति तहावि सुज्झति, अह भुंजति तो अणायारे सुहुमं स्वल्पं, बादरं णाम बहुगं। पायच्छित्त-विहाणगे वटुंतस्स पच्छित्तं भवति। (निभा ६४९७, ६४९९ चू) वा सुहुमबादरविकप्पो भवति। जत्थ पणगं तं सुहुमं, सेसं ___ स्वीकृत व्रतों में लगने वाले दोषों के चार स्तर हैं बादरं। (निभा ३३० की चू) अतिक्रम-दोषसेवन के लिए मानसिक संकल्प। . सूक्ष्म मृषावाद में मासलघु या मासगुरु तथा बादर मृषावाद व्यतिक्रम-दोषसेवन के लिए प्रस्थान। में चतुर्लघु आदि प्रायश्चित्त आता है। अतिचार-दोषसेवन के लिए सामग्री जुटाना। सूक्ष्म का अर्थ है स्वल्प, बादर का अर्थ है बहुत । प्रायश्चित्त अनाचार-दोष का सेवन करना। विधान में सूक्ष्म और बादर का विकल्प होता है। जिसमें पांच इनमें अतिचार गुरु और अनाचार गुरुतर है। इनका प्रायश्चित्त अहोरात्र का प्रायश्चित्त हो, वह सूक्ष्म है, शेष बादर है। भी क्रमशः गुरु, गुरुतर होता है। • विषयराग से गुरु प्रायश्चित्त निशीथ सूत्र में निर्दिष्ट सारे प्रायश्चित्त स्थविरकल्पी के लिए रागेतर गुरुलहुगा, सद्दे रूवे रसे य फासे य। अनाचार सेवन की अपेक्षा से हैं। स्थविरकल्पी को अतिक्रम, गुरुगो लहुगो गंधे, जं वा आवजती जुत्तो॥ व्यतिक्रम और अतिचार के लिए तप प्रायश्चित्त नहीं आता, (निभा १३२) मिथ्यादुष्कृत के उच्चारण आदि से उनकी शुद्धि हो जाती है। शब्द, रूप, रस और स्पर्श-इन चार इन्द्रियविषयों में राग यथा-कोई मुनि आधाकर्म आहार-ग्रहण की स्वीकृति दे देता है किन्तु उसके लिए प्रस्थान नहीं करता है अथवा प्रस्थान कर उस __ करने पर चतुर्गुरु तथा द्वेष करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। आहार को ग्रहण कर लेता है, किन्तु परिभोग नहीं करता, उसका गंधराग से मासगुरु तथा गंधद्वेष से मासलघु प्राप्त होता है। परिष्ठापन कर देता है तो वह शुद्ध है। उसे खाने वाला अनाचार- १६. राग-द्वेष की वृद्धि से प्रायश्चित्त-वृद्धि जन्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। जिनकल्पी को अतिक्रम आदि जध मन्ने दसमं सेविऊण, निग्गच्छते तु दसमेण। चारों पदों में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तध मन्ने दसमं सेविऊण एगेण निग्गच्छे । ० अतिक्रम चतुष्क : मासगुरु आदि (व्यभा ५०९) तिन्नि य गुरुगा मासा, विसेसिया तिण्ह व अह गुरुअंते। पारांचित (दशम प्रायश्चित्त) जितनी प्रतिसेवना करने पर एते चेव उ लहुया, विसोधिकोडीय पच्छित्ता॥ पारांचित प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। कदाचित् पारांचित जितनी त्रयाणामतिक्रमव्यतिक्रमातिचाराणां त्रयो गुरुका मासाः प्रतिसेवना करने पर उसकी अनवस्थाप्य से भी शुद्धि होती है। .""एते च त्रयोऽपि यथोत्तरं तपःकालविशेषिताः अथ अन्ते इसी प्रकार कभी मूल, छेद, छह मास यावत् एक मास या भिन्न अनाचारलक्षणे दोषे चतुर्गुरु चतुर्मासगुरुप्रायश्चित्तं.... मास, बीस, पन्द्रह दस या पांच अहोरात्र, दशमभक्त (चोला) शोधिकोट्या त्वेत एव मासादयो लघुका प्रायश्चित्तानि... अट्ठमभक्त (तेला), छट्ठभक्त, चतुर्थभक्त, आचाम्ल, एकाशन, अनाचारे चतुर्मासलघु। (व्यभा ४४ वृ) पुरिमड्ड (दो प्रहर) और निर्विकृतिक के द्वारा भी दशम प्रायश्चित्त अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार-इन तीनों में तप और स्थान की शुद्धि हो जाती है । नौवें (अनवस्थाप्य) प्रायश्चित्त स्थान काल से विशेषित गुरुमास प्रायश्चित्त आता है। अनाचार दोष का का सेवन करने वाला आठवें (मूल) से भी शुद्ध हो सकता है। प्रायश्चित्त चतुर्गुरु है। (यह विधान अविशोधि कोटि के लिए है।) प्रायश्चित्त के इस हानि के क्रम की भांति वृद्धि का क्रम भी विशोधि कोटि वाले अतिचार आदि का प्रायश्चित्त लघुमास है। है। निर्विकृतिक से शोधि हो सके, उतनी प्रतिसेवना करने वाले को ० सूक्ष्म-बादर प्रायश्चित्त निर्विकृतिक यावत् पारांचित प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। "लहुगुरुमासो सुहुमो, लहुमादी बादरे होंति॥(निभा ३०१) इसका हेतु है-अध्यवसाय (राग-द्वेष) की मंदता और तीव्रता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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