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________________ आगम विषय कोश - २ मणपरमोधिजिणाणं, चउदसदसपुव्वियं च नवपुव्विं । थेरेव समासेज्जा, ऊणऽब्भहिया च पट्टवणा ॥ हा दुट्टु कतं हा दुट्टु कारितं दु अणुमयं मेति । अंतो अंतो डज्झति, पच्छातावेण जिणपण्णत्ते भावे, असद्दहंतस्स तस्स हरिसमिव वेदयंतो, तथा तथा वडते (व्यभा ५१४- ५१६) वेवंतो ॥ पच्छित्तं । उवरिं ॥ मनः पर्यवजिन, परमावधिजिन, केवली, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नवपूर्वी - ये प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं, अपराधी के अध्यवसायों की हानि - वृद्धि को साक्षात् जानकर तुल्य अपराध पद में भी राग-द्वेष की मात्रा के अनुरूप न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं । परोक्षज्ञानी आचार्य आदि अपराधी को पश्चात्ताप आदि बाह्य चिह्नों से जान लेते हैं। यथा-हा ! मैंने गलत किया, गलत करवाया, गलत अनुमोदन किया- इस प्रकार पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए अपराधी के प्रकम्पित चित्त से उसकी रागद्वेष की हानि को जानकर तदनुरूप स्वल्प प्रायश्चित्त देते हैं। जो जिनप्रज्ञप्त भावों में अश्रद्धा करता है, आलोचना-काल में हर्षित होता है, उसे उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। १७. प्रायश्चित्तवृद्धि के प्रकार : स्वस्थान- परस्थान पच्छित्तस्स विवड्डी, सरिसट्ठाणातो विसरिसे तमेव । तप्पभिती अविसुद्धमादी संभुंजतो गुरुगा ॥ ( निभा २०८१) प्रायश्चित्त की वृद्धि के दो प्रकार हैं१. स्वस्थान वृद्धि-सदृश स्थानों में वृद्धि । यथा - तीन बार मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ तो चौथी बार वृद्धि होने पर वही मासगुरु हो जाता है। इसी प्रकार चतुर्लघु से चतुर्गुरु, षड्लघु से षड्गुरु । २. परस्थान वृद्धि - विसदृश स्थानों में वृद्धि । यथा - मासलघु दो मासिक, दो मास से त्रैमासिक - यह सारी परस्थान वृद्धि है। तीन बार से अधिक वही प्रतिसेवना करने वाला नियमतः मायी और अविशुद्ध होता है। उसके साथ सम्भोज करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ० स्थान के आधार पर प्रायश्चित्तवृद्धि ..........गुरूहिं आरोवण वसभेहि कायव्वा, Jain Education International ४०३ कुल गणे संघे। ************* Il .....चतुर्गुरवः । अथ नावृत्ताः किन्तु गुरुवचनातिक्रमं कुर्वन्ति ततः षड्गुरुकाः छेदः मूलम् अनवस्थाप्यम्”” पाराञ्चिकम् । (बृभा २८५९ वृ) .... चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्ति जितना दोषसेवन कर आवृत्त न होने पर और गुरु के वचन का अतिक्रमण करने पर स्थान के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है, यथा ● गुरु के वचन का अतिक्रमण करने से - षड्गुरु • वृषभ के वचन का अतिक्रमण करने से - छेद प्रायश्चित्त ० ० कुलस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - मूल • गणस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - अनवस्थाप्य संघस्थविर के वचन का अतिक्रमण करने से - पारांचित । १८. मासलघु आदि के प्रतीकाक्षर चगुरु चलहु सुद्धो, छल्लहु चउगुरुग अंतिमो सुद्धो । छग्गुरु चउगुरु लहुओ ॥ ङ्का, ङ्क, सु, फ्रु, ङ्का, सु, फ्र, ङ्का, ०। (निभा ६६३६ चू) द्दि (ल) द्दी (गु)'''''। (निभा १६१ की चू) प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में अंक या प्रायश्चित्त संबंधी कुछ सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। जैसेचतुर्लघु = ङ्क । चतुर्गुरु = ङ्का । ० • षड्लघु = फ्रु । षड्गुरु = फ्री | ० लघु मास = ० ० शुद्ध = सु । • लघु = द्दियाल । ० गुरु = द्दी या गु। ..... नक्खत्ते भे पीला, सुक्के मासं तवं कुणसु ॥ एवं ता उग्घाए, अणुघाते ताणि चेव किण्हम्मि ।....... नक्षत्रशब्देनात्र मासः सूचितः । शुक्ले इति सांकेतिकी संज्ञेति उद्घातं मासं ... | (व्यभा ४४९०, ४४९३ वृ) For Private & Personal Use Only नक्षत्र, शुक्ल और कृष्ण- ये तीन सांकेतिक पद क्रमशः मास, लघुमास और गुरुमास के सूचक हैं। संख्या के सांकेतिक पद .....चउ विधो दसविधो ङ्क ( ई = ४ ) र्ल् (१० ) । ङ्क पद चार का तथा लृ पद दस का प्रतीक है। ******* | (निभा ४ चू) www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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