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________________ आगम विषय कोश - २ ४०१ उग्घायमणुग्घाया, दव्वम्मि हलिद्दराग - किमिरागा । खेत्तम्मि कण्हभूमी, पत्थरभूमी य हलमादी ॥ कालम्मि संतर णिरंतरं तु समयो य होतऽणुग्घातो । भव्वस्स अट्ठ पयडी, उग्घातिम एतरा इयरे ॥ जेण खवणं करिस्सति, कम्माणं तारिओ अभव्वस्स । णय उप्पज्जइ भावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो ॥ कालत उद्घातिकं सान्तरं प्रायश्चित्तस्य दानम्, अनुद्घातिकं निरन्तरदानम् । तुशब्दाद् लघुमासादिकमुद्घातिकम्, गुरुमासादिकमनुद्घातिकम् । (बृभा ४८९१ - ४८९३ वृ) भागपातः सान्तरदानं वा उद्घातः, स विद्यते येषु ते उद्घातिकाः तद्विपरीता अनुद्घातिकाः । (क ४/१ की वृ) उद्घातिक अनुद्घातिक के चार निक्षेप हैं ० द्रव्यतः - हल्दी का रंग आसानी से दूर हो जाता है, अतः यह उद्घातिक द्रव्य है । कृमिराग- अनुद्घातिक है । ० क्षेत्रतः - कृष्णभूमि उद्घातिक है। इसमें हल आदि आसानी से चलाया जा सकता है। प्रस्तरभूमि अनुद्घातिक है । ० कालतः - समय अविभागी होने से अनुद्घातिक है । आवलिका आदि उद्घातिक है। प्रायश्चित्त, जो सांतर है, जिसका भाग किया जा सकता है, वह उद्घातिक है। जो निरंतर दान है, जिसमें भाग नहीं किया जाता, वह अनुद्घातिक है। अथवा लघुमासिक आदि उद्घातिक और गुरुमासिक आदि अनुद्घातिक हैं । ० भावतः - भव्य प्राणी की आठ कर्मप्रकृतियां उद्घातिक और अभव्य की अनुद्घातिक हैं। जिन शुभ अध्यवसायों से कर्मों का क्षय किया जा सके, वैसे शुभ अध्यवसाय अभव्य के उत्पन्न ही नहीं होते, इसलिए उसके कर्म अनुद्घातिक हैं। • अनुद्घात के स्थान ओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं जहा - हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, राईभोयणं भुंजमाणे ॥ (क ४/१) तीन अनुद्घात्य (गुरु) प्रायश्चित्त के भागी होते हैं - १. हस्तकर्म करने वाला, २ . मैथुन - सेवन करने वाला और ३. रात्रिभोजन करने वाला। (शय्यातरपिंड और राजपिंड का भोजन करने वाला भी अनुद्घातिक होता है । -स्था ५ / १०१ ) Jain Education International प्रायश्चित्त ० उद्घात - अनुद्घात के स्तर उग्घातियं वहंते, उग्घातिय संकप्पिय, अवघा होति । य ॥ सुद्धे परिहारियतवे अणुग्घातियं वहंते, आवण्णऽणुघातहेउगं होति । अणुघातिय- संकप्पिय, सुद्धे परिहारिय तवे य ॥ उग्घातियं ति पायच्छित्तं वहंतस्स - पायच्छित्तमापण्णस्स जाव णालोइयं ताव हेउं भण्णति, आलोइए " अमुगदिणे तुज्झेयं पच्छित्तं दिज्जिहिति" त्ति संकप्पियं भन्नति । एयं पुण दुविधं पि दुविहं वहति - सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा । हेऊ वि सुद्धस्स तवस्स वा परिहारतवस्स वा । संकप्पियं पि सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा । ( निभा २८६८, २८६९ चू) उद्घात के तीन स्तर हैं— उद्घात, उद्घात हेतु और उद्घात संकल्प। उद्घातिक प्रायश्चित्त का वहन करने वाला जब तक आलोचना नहीं करता, तब तक वह उद्घात हेतु कहलाता 1 आलोचना के पश्चात् 'अमुक दिन तुम्हें यह प्रायश्चित्त दिया जाएगा' - यह उद्घात संकल्प कहलाता है। उद्घातिक, हेतु और संकल्प का दो-दो प्रकार से वहन किया जाता है - शुद्ध तप से, परिहार तप से। इसी प्रकार अनुद्घात के तीन रूप हैं - अनुद्घातिक, हेतु और संकल्प । ० गुरु-लघु प्रायश्चित्त के दो हेतु पच्चयहे जं, तेसिं भयहेउ सेसगाण य, इमा उ आरोवणारयणा ॥ (बृभा ६०३८) अपरिणामक मुनियों में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि प्रायश्चित्त के द्वारा यहां विशुद्धि कराई जाती है तथा अतिपरिणामक मुनियों में प्रतिसेवना के प्रति भय पैदा करने के लिए लघु, लघुतर, गुरु, गुरुतर आदि प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। १५. स्थविरकल्पी : अनाचारजन्य तप प्रायश्चित्त For Private & Personal Use Only ********** अतिक्कमे वतिक्कमे चेव अतियारे तह अणाचारे । गुरुओ य अतीयारो, गुरुगतरो उ अणायारो ॥ सव्वे वि य पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पडुच्चऽणायारं । थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चतुसु वि पदेसु ॥ थेरकप्पियाण''जति पडिस्सुते पदभेदातो णियत्ति www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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