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________________ पारांचित हे प्रतिहाररूपिन् ! तुम भीतर जाकर राजरूपी को कहो कि एक श्रमणरूपी आपसे मिलना चाहता है । प्रतिहारी ने राजा को निवेदन किया। जहां राजा था, मुनि ने वहां प्रवेश किया। राजा ने मुनि का अभिवादन किया, शुभ आसन पर बिठाया और कुतूहलवश पूछा - हे मुने! तुम्हारे गम्भीर अर्थ वाले और अश्रुतपूर्व प्रतिहाररूपी, राजरूपी और श्रमणरूपी शब्दों का अर्थ क्या है ? मुनि ने कहा- हे राजन्! शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र के जैसे आत्मरक्षक होते हैं, वैसे आत्मरक्षक आपके नहीं हैं इसलिए मैंने प्रतिहाररूपिन् शब्द का प्रयोग किया। जैसे चक्रवर्ती होता है, वैसे आप नहीं हैं क्योंकि आपके पास चक्ररत्न नहीं है किन्तु शौर्य और न्याय की अनुपालना में आप चक्रवर्ती के प्रतिरूप हैं इसलिए मैंने राजरूपी शब्द का प्रयोग किया है। राजा ने प्रश्न किया- तुम श्रमणों के प्रतिरूपी कैसे हो ? उसने कहा - श्रमण निरतिचार होते हैं, मैं वैसा नहीं हूं इसलिए मैं श्रमणों का प्रतिरूपी हूं । हे नरेश ! मैं अपने प्रमादजनित अतिचार विशोध कर रहा हूं इसलिए संघ से निष्कासित हूं। जिस क्षेत्र में श्रमण रहते हैं, मैं उनके साथ नहीं रह सकता इसलिए मैं श्रमण का प्रतिरूपी हूं। राजा यदि पूछे - मुने! तुमने कौन-सा अतिचार किया और उसकी विशोधि कैसे कर रहे हो ? तब मुनि प्रवचन की प्रभावना के लिए इस प्रश्न के उत्तर के साथ-साथ अन्य प्रासंगिक बातें बताकर राजा को प्रभावित और आकृष्ट करता है। आपके आगमन का प्रयोजन क्या है ? - राजा द्वारा यह पूछे जाने पर मुनि अपना प्रयोजन प्रकाशित करता है, तब राजा हर्ष से उल्लसित होकर कहता है-मैंने जो निषेधाज्ञा जारी की थी, उसे विसर्जित करता हूं। जिस कार्य को संघ नहीं कर सका, उस कार्य को पारांचिक साधु के अचिन्त्य प्रभाव ने कर दिया। राजा कहता है - हे मुने! तुम्हारे कहने से ही मैं अपनी पूर्व आज्ञा को विसर्जित करता हूं। पारांचिक भी कहता है- मेरी क्या शक्ति है ? संघ महान् है, आचार्य महान् हैं। इसलिए आप संघ को बुलाकर क्षमायाचना कर कहें- 'मैंने संघविषयक सारी आज्ञाएं विसर्जित कर दी हैं', तब राजा संघ की पूजा करता है। अब्भत्थितो व रण्णा, सयं व संघो विसज्जति तु तुट्ठो । आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुओ होइ ॥ Jain Education International आगम विषय कोश - २ एक्को य दोन्नि दोन्नि य, मासा चउवीस होंति छब्भागे । देसं दोन्ह वि एयं वहेज्ज मुंचेज्ज वा सव्वं ॥ अट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव वरिसं च । बावत्तरिं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु ॥ पारंचीणं दोण्ह वि, जहन्नमुक्कोसयस्स कालस्स । छब्भागं दसभागं, वहेज्ज सव्वं व झोसिज्जा ॥ (बृभा ५०५४-५०५७) राजा संघ से अभ्यर्थना करता है - इस पारांचिक को प्रायश्चित्त से मुक्त करें । इस प्रकार राजा की प्रार्थना पर अथवा मुनि के कार्य से संतुष्ट होकर संघ स्वयं उसे प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है। ३५८ उसके पारांचित तप का आदि, मध्य या अवसान जो भी हो, जितना वहन करना शेष हो, वह विसर्जित कर दिया जाता है। गुरु और संघ के प्रसाद से प्रायश्चित्त का हेतुभूत अवशिष्ट दोष प्रकम्पित हो क्षीण हो जाता है। आचार्य चाहें तो उसे प्रायश्चित्त का देश (छठा भाग) अथवा देशदेश (दसवां भाग ) भी वहन करा सकते हैं, सर्वथा मुक्त भी कर सकते हैं। आशातना पारांचित में जघन्य देश (छठा भाग) एक मास, उत्कृष्ट दो मास तथा जघन्य देशदेश (दसवां भाग) अठारह दिन, उत्कृष्ट छत्तीस दिन होते हैं । प्रतिसेवना पारांचिक में जघन्य देश दो मास, उत्कृष्ट देश चौबीस मास तथा जघन्य देशदेश छत्तीस दिन, उत्कृष्ट देशदेश बहत्तर दिन होते हैं । १३. अनवस्थाप्य के प्रकार आसायण पडिसेवी, अणवटुप्पो वि होति दुविहो तु । एक्केक्को वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो ॥ (बृभा ५०५९) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं- आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैंसचारित्री और अचारित्री । - • आशातना अनवस्थाप्य तित्थयर पयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए । आसादेंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ पढम-बितिसु णवमं, सेसे एक्केक्क चउगुरू होंति । सव्वे आसादेंतो, अणवटुप्पो उ सो होइ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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