SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम विषय कोश - २ प्रायश्चित्ती आचार्य अपने तुल्य शिष्य में अल्पकालिक गण-निक्षेप कर दूसरे गण में चले जाते हैं। प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में दूसरे गण के आचार्य के समक्ष आलोचना करते हैं, फिर निर्विघ्नता के लिए दोनों आचार्य कायोत्सर्ग करते हैं। अपने गच्छ में पारांचित वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में अविश्वास उत्पन्न होता है, गुरु का भय नहीं रहता। भय के अभाव में गुरु की आज्ञा का भंग सहज हो जाता है, शिष्यों के अनुरोध से प्रायश्चित्तवाही आचार्य स्वयं भिक्षाचर्या संबंधी नियंत्रण का पालन नहीं कर पाते। दूसरे गण में इन दोषों की उत्पत्ति नहीं होती । अर्हत् की आज्ञा की अनुपालना में स्थिरता आती है और आत्मा में पाप के प्रति भय उत्पन्न होता है । १०. पारांचिक की जिनकल्पी सदृश चर्या जिणकप्पियपडिरूवी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो । विहरति बारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो ॥ (बृभा ५०३५) पारांचिक मुनि जिनकल्पिकप्रतिरूपी होता है। अलेपकृत भिक्षा ग्रहण करना, तृतीय पौरुषी में पर्यटन करना इत्यादि चर्या जिनकल्पी के सदृश होती है। वह क्षेत्र से बाहर रहता हुआ अकेला ध्यानसंयुक्त- श्रुतपरावर्तन में एकचित्त होकर बारह वर्ष तक विहरण करता है। ११. पारांचिक का कालमान आसायणा जहणणे, छम्मासुक्कोस बारस तु मासे । वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भतिओ ॥ (बृभा ५०३२) पारांचिक जघन्यकाल आशातना पारांचिक उत्कृष्टकाल बारह मास प्रतिसेवना पारांचिक छह मास एक वर्ष बारह वर्ष पारांचिक इतने काल तक गण से बाहर रहता है। संघीय कार्य उपस्थित होने पर अवधि से पूर्व भी गण में प्रवेश कर सकता है। १२. संघकार्य में पारांचिक की भूमिका निव्विसउत्ति य पढमो, बितिओ मा देह भत्तपाणं से। ततितो उवकरणहरो, जीय चरित्तस्स वा भेतो ॥ जाणता माहप्पं, सयमेव भांति एत्थ तं जोग्गो । अथ मम एत्थ विसओ, अजाणए सो व ते बेति ॥ ३५७ Jain Education International पारांचित अच्छउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसयागरी संघो । गुरुगं पि इमं कज्जं मं पप्प भविस्सए लहुयं ॥ अभिहाणहेउकुसलो, बहूसु नीराजितो विउसभासु । गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारट्ठे ॥ (बृभा ३१२१, ५०४४-५०४६) कदाचित् राजा ने कुपित होकर संघ को देशनिष्काशन का आदेश दिया हो, आहार- पानी देने का निषेध कर दिया हो, उपकरणों का हरण कर लिया हो अथवा जीवन या चारित्र को विच्छिन्न करने की आज्ञा दी हो-इनमें से किसी भी कार्य के उत्पन्न होने पर आचार्य यदि उस पारांचिक मुनि के माहात्म्य को जानते हैं तो स्वयं उसे कहते हैं - इस कार्यसिद्धि के लिए तुम योग्य हो, अत: उद्यम करो। यदि वे उसकी शक्ति से परिचित नहीं हैं तो वह पारांचिक स्वयं कहता है इस विषय में मेरा प्रवेश है। सैकड़ों गुणों का निधान यह महानुभाग संघ अक्षुण्ण रहे, इसका हित हो। मैं इस महान् संघसुरक्षा के कार्य को सरलता से संपादित कर सकता हूं । संघ की अनुज्ञा प्राप्त कर शब्दप्रयोग और हेतुवाद में कुशल तथा अनेक विद्वत्सभाओं में संभागिता वाला वह पारांचितवाहक राजभवन में जाकर प्रतीहार से कहता है पडिहाररूवी! भण रायरूविं, तमिच्छए संजयरूवि दठ्ठे । निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ॥ तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, पुच्छ्सुि रायाऽऽगयकोउहल्लो । पहे उराले असुए कयाई, स चावि आइक्खइ पत्थिवस्स ॥ जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो । तुह राय ! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी ॥ समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय ! तं कहमहं ति । निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी ॥ निज्जूढो मि नरीसर ! खेत्ते वि जईण अच्छिउं न लभे । अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमायमूलस्स ॥ कहणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स । वीसज्जियंति य मए, हासुस्सलितो भणति राया ॥ संघो न लभइ कज्जं लद्धं कज्जं महाणुभाएणं । तुब्भं ति विसज्जेमिं, सो वि य संघो त्ति पूएति ॥ (बृभा ५०४७-५०५३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy