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________________ आगम विषय कोश-२ ३५९ पारांचित .." तीर्थंकर-संघाशातनयोरुपाध्यायस्य"अनवस्थाप्यं ही उत्कृष्ट बारह वर्ष विहरण करता है। पर-गण में वह उपाश्रय भवति। के शेष साधुओं द्वारा अपरिभोग्य एक पार्श्व में संवास कर सकता तीर्थकर प्रवचन श्रत. आचार्य गणधर और महर्टिक की है, किन्तु आलाप आदि दस पदों का वर्जन करता है । (दस पदआशातना करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है। तीर्थंकर और वर्जन द्र परिहारतप) वजन संघ की आशातना से उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। शेष १५. अनवस्थाप्य का कालमान श्रुत आदि चारों पदों में एक-एक की आशातना करने पर प्रत्येक का आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस उ मासा। चतुर्गुरु और सबकी आशातना करने से अनवस्थाप्य आता है। वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भइओ॥ ० प्रतिसेवना अनवस्थाप्य (बृभा ५१३२) तओअणवठ्ठप्या पण्णत्ता, तं जहा-साहम्मियाणं तेणियं अनवस्थाप्य जघन्य उत्कृष्ट करेमाणे, अण्णधम्मियाणं तेणियं करेमाणे, हत्थादालं दल- आशातना छह मास बारह मास माणे॥ प्रतिसेवना एक वर्ष बारह वर्ष ....."अनवस्थाप्याः तत्क्षणादेव व्रतेष्वनवस्थापनीयाः। संघीय कार्य होने पर प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का काल न्यून (क ४/३ वृ) भी हो सकता है, जिसकी विधि पारांचित की भांति वक्तव्य है। पडिसेवणअणवट्ठो, तिविधो सो होड़ आणपव्वीए।.... १६. प्रायश्चित्त वाहक के प्रति आचार्य का दायित्व (बृभा ५०६२) ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि। तीन अनवस्थाप्य (नौवें प्रायश्चित्त) के भागी होते हैं उप्पण्णे कारणम्मि, सव्वपयत्तेण कायव्वं ।। १. साधर्मिकों की चोरी करने वाला, २. अन्यधार्मिकों की चोरी जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। करने वाला, ३. हस्तताल देने वाला-मारक प्रहार करने वाला। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा। भाष्य में इन्हें प्रतिसेवनाअनवस्थाप्य कहा गया है। आहरति भत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पिसे कुणति। अनवस्थाप्य का अर्थ है-तत्क्षण ही व्रतों में अनवस्थापनीय। सयमेव गणाधिवती, अध अगिलाणो सयं कुणति॥ १४. अनवस्थाप्य-ग्रहणविधि तथा सामाचारी उभयं पिदाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। ...."दव्वाइ सुहे वियडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ आसासइत्ताण तवो किलंतं, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा॥ सेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव। गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो। विहरइ बारस वासे, अणवट्ठप्पो गणे चेव॥ कालम्मि दुब्बले वा, 'कज्जे अण्णे' व वाघातो॥ ..."संवासो से कप्पड़, सेसा उ पया न कप्पंति॥ पेसेति उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो। (बृभा ५१३३, ५१३५, ५१३६) पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स वावि दीवेति तं कज्जं ॥ अनवस्थाप्यप्राप्त मुनि गुरु के समक्ष प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, (व्यभा १२११-१२१६) काल और भाव में-वटवृक्ष आदि क्षीरवृक्षों के नीचे, इक्षुक्षेत्र में भिक्षु आचार्य के पास अनवस्थाप्य या पारांचित प्रायश्चित्त पूर्वाह्न के समय, प्रशस्त चन्द्रतारा-बल होने पर आलोचना करता वहन करता है। वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन के पूरे काल में है। गरु अनवस्थाप्य तप की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए कायोत्सर्ग प्रतिदिन उसका अवलोकन तथा गवेषणा (सुखपृच्छा) करते हैं करते हैं। और यदि वह बीमार हो जाता है तो स्वयं आचार्य सम्पूर्ण प्रयत्नों ___ अनवस्थाप्य मुनि शैक्ष आदि सब मुनियों को वन्दना करता से उसकी सेवा करते हैं-आहार-पानी लाकर देते हैं, उद्वर्तनहै और जिनकल्पी की भांति महातपस्वी बन जाता है। वह गण में परिवर्तन (करवट बदलना आदि) करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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