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________________ आगम विषय कोश-२ ३५३ पारांचित ४. प्रतिसेवना पारांचित के प्रकार ५. दुष्ट पारांचिक : सर्षपनाल आदि दृष्टांत ६. प्रमत्त (स्त्यानर्द्धि) पारांचिक : लिंग पारांचिक ० अचारित्री की लिंग-हरण-विधि ० पुनः लिंगापहार कैसे? ७. क्षेत्र-लिंग-तप-पारांचिक दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद ८. तपपारांचित-तप अनवस्थाप्य वहन की अर्हता ९. अन्य गण में पारांचित वहन क्यों? १०. पारांचिक की जिनकल्पी सदृश चर्या ११. पारांचिक का कालमान १२. संघ कार्य में पारांचिक की भूमिका * पारांचित : प्रायश्चित्त का दसवां भेद * अनवस्थाप्य : प्रायश्चित्त का नौवां भेद द्र प्रायश्चित्त १३. अनवस्थाप्य के प्रकार ० आशातना अनवस्थाप्य ० प्रतिसेवना अनवस्थाप्य १४.अनवस्थाप्य-ग्रहणविधि तथा सामाचारी १५. अनवस्थाप्य का कालमान |१६. प्रायश्चित्त वाहक के प्रति आचार्य का दायित्व १७. अनवस्थाप्य और पारांचित में भिन्नता १८. अनवस्थाप्य-पारांचिक गृहीभूत ० गृहस्थवेष क्यों? ० गृहस्थवेष और उपस्थापना विधि * अवहेलनापूर्वक प्रायश्चित्त : सावध जीत द्र व्यवहार ० अनवस्थाप्य-पारांचिक अगृहीभूत भी * साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं द्र प्रायश्चित्त १. पारांचित के निर्वचन अंचु गति-पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति। सोधीय पारमंचइ, ण यावि तदपूतियं होति॥ ..."अपश्चिमं प्रायश्चित्तम् तत् पाराञ्चिकं पाराञ्चितं वाभिधीयते। तद्योगात् साधुरपि पाराञ्चिकः। (बृभा ४९७१ वृ) ० अञ्चु धातु यहां गति और पूजा के अर्थ में ग्राह्य है। ० साधु जिस प्रायश्चित्त का वहन कर संसार-समुद्र के तीरभूत अनुत्तर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है. वह पारांचिक है। ० जो प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है-अंतिम प्रायश्चित्त है। ० प्रायश्चित्ती साधु जिस तप की पूर्णता से अपूजित नहीं होता, प्रत्युत् श्रमणसंघ की पूजा प्राप्त करता है, वह पारांचिक या पारांचित है। इसके योग से-उपचार से साधु भी पारांचिक कहलाता है। (० जो तप के द्वारा अपराध का पार/विशोधन कर पुनः दीक्षित होता है, वह पारांची है। ० जिसमें लिंग-क्षेत्र-काल-विवेक और तप द्वारा अपराध का पार पाया जाता है, वह पारांचिक है।-निको पृ १९९) २. पारांचित के प्रकार और चारित्र की भजना आसायण पडिसेवी, दुविहो पारंचितो समासेणं। एक्केक्कम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते । सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं। कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज॥ (बृभा ४९७२, ४९७३) पारांचित के दो प्रकार हैं१. आशातना पारांचित २. प्रतिसेवना पारांचित। इनमें चारित्र की भजना है-ये दोनों ही सचारित्री भी हो सकते हैं, अचारित्री भी हो सकते हैं। किसी-किसी पारांचित प्रायश्चित्त योग्य अपराध में व्यक्ति का पूरा चारित्र ही नष्ट हो जाता है और किसी-किसी के चारित्र का अंश बच जाता है। इसका हेतु है मंद-तीव्र परिणामों से आसेवित जघन्य-उत्कृष्ट अपराध। ३. आशातना पारांचित के स्थान तित्थकर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए। एते आसायंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ पाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं व भुंजती भोगे। थीतित्थं पि य वुच्चति, अतिकक्खडदेसणा यावि॥ ............ पावति पारंचियं ठाणं॥ अक्कोस-तज्जणादिसु , संघमहिक्खिवति संघपडिणीतो। अण्णे वि अस्थि संघा, सियाल-णंतिक्क-ढंकाणं॥ काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमायमप्पमादा य। मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जासु किं च पुणो॥ इड्डि-रस-सातगुरुगा, परोवदेसुज्जया जहा मंखा। अत्तट्ठपोसणरया, पोसेंति दिया व अप्पाणं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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