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________________ पारांचित अब्भुज्जयं विहारं, देसिंति परेसि सयमुदासीणा । उवजीवंति य रिद्धिं, निस्संगा मो त्ति य भांति ॥ गणधर एव महिड्डी, महातवस्सी व वादिमादी वा । ... पढम- बितिएसु चरिमं, सेसे एक्केक्क चउगुरू होंति । सव्वे आसादितो, पावति पारंचियं ठाणं ॥ तित्थयरपढमसिस्सं, एक्कं पाऽऽसादयंतु पारंची। अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो सो जेण सुत्तस्स ॥ 'प्राभृतिकां' सुरविरचितसमवसरण महाप्रातिहार्यादिपूजालक्षणाम् ।...... (बृभा ४९७५-४९८४ वृ) आशातना के छह स्थान हैं - तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मुनि - इनकी आशातना करने वाले के प्रायश्चित्त में मार्गणा होती है । १. तीर्थंकर - आशातना - तीर्थंकर देवों द्वारा रचित समवसरण तथा महाप्रातिहार्य पूजा रूप प्राभृतिका की अनुमोदना करते हैं, यह ठीक नहीं है। वे अतिशय ज्ञान से भव के स्वरूप को जानते हैं, फिर भोगों को क्यों भोगते हैं ? मल्लिनाथ स्त्री थीं, उन्हें तीर्थंकर कहना असमीचीन है। सर्वोपायकुशल तीर्थंकरों की देशना का आचरण अत्यन्त दुष्कर है, अतः ऐसी देशना भी अयुक्त है - इस प्रकार के वचन प्रयोगों से तीर्थंकर की आशातना होती है। २. प्रवचन - आशातना - संघप्रत्यनीक व्यक्ति आक्रोश, तर्जना आदि से संघ का तिरस्कार करता है। वह कहता है- शृगाल, नांतिक्क, ढंक आदि के अन्य संघ भी हैं। ३. श्रुत- आशातना - दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में षट्काय, छह व्रत, प्रमाद और अप्रमाद का जो बार-बार वर्णन किया गया है, वह अनुपयुक्त है। आगमों में ज्योतिष विद्या, निमित्त विद्या आदि का विवेचन है। मोक्षार्थी मुनि का उनसे क्या प्रयोजन ? ४. आचार्य - आशातना - आचार्य ऋद्धि-रस- सातप्रधान, मंख की भांति परोपदेश में उद्यत तथा आत्मार्थ पोषण में रत होते हैं। वे द्विज की तरह अपना पोषण करते हैं। ५. गणधर - आशातना - गौतम आदि गणधर दूसरों को अभ्युद्यत विहार (जिनकल्प आदि) का उपदेश देते हैं पर स्वयं उससे उदासीन रहते हैं। वे अक्षीणमहानस, चारण आदि लब्धियों के उपजीवी होते हैं और 'हम निस्संग हैं' ऐसा कहते हैं । ६. महर्द्धिक- आशातना - सर्वलब्धि सम्पन्न होने से गणधर ही Jain Education International आगम विषय कोश - २ महर्द्धिक होते हैं अथवा महातपस्वी, वादी आदि महर्द्धिक कहलाते । उनका अवर्णवाद बोलना महर्द्धिक- आशातना है। तीर्थंकर और संघ की देशतः या सर्वतः आशातना करने पर पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। श्रुत, आचार्य और महर्द्धिक में से प्रत्येक की देशतः आशातना से चतुर्गुरु तथा सर्व आशातना से पारांचित प्राप्त होता है। तीर्थंकर के प्रथम शिष्य - गणधर की आशातना से भी पारांचित प्राप्त होता है। क्योंकि तीर्थंकर मात्र अर्थ के प्रणेता होते हैं, सूत्र के प्रणेता गणधर ही होते हैं । ४. प्रतिसेवना पारांचिक के प्रकार - तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा दुट्ठे पारंचिए, पमत्ते पारंचिए, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिए । (क ४/२) पडिसेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुवीए।..... (बृभा ४९८५) ३५४ सूत्रोक्त परिपाटी से तीन प्रकार के श्रमण प्रतिसेवना पारांचित (दसवें प्रायश्चित्त) के भागी होते हैं १. दुष्ट पारांचिक - कषाय और विषय से दूषित । २. प्रमत्त पारांचिक -- स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला । ३. अन्योन्यक्रिया पारांचिक - मैथुन सेवन करने वाला । ( पांच स्थानों में श्रमण पारांचित का भागी होता है - १. कुल में भेद डालने वाला, २. गण में भेद डालने वाला, ३. हिंसाप्रेक्षी, ४. छिद्रान्वेषी, ५. बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करने वाला । - स्था ५ / ४७ ) । ५. दुष्ट पाचिक : सर्षपनाल आदि दृष्टांत दुविधो य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो या..... सासवणाले मुहणंत य उलुगच्छि सिहरिणी चेव । सासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजें एतरे कोवो । खामणमणुवसमंते, गणिं ठवेत्तऽण्णहिँ परिण्णा ॥ पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽण्णतो गंतु कत्थ से सरीरं । गुरु पुव्व कहितऽदातण, पडियरणं दंतभंजणता ॥ मुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु णिसि गलग्गहणं।'''' अत्थंगए वि सिव्वसि, उलुगच्छी ! उक्खणामि ते अच्छी ।'' सिहरिणिलंभाऽऽलोयण, छंदिऍ सव्वाइते अ उग्गिरणा । (बृभा ४९८६-४९९२) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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