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________________ देव करता । वह प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करता, तो वे भी भूखे रहते। दोनों बैल भद्र और सम्यक्त्वयुक्त थे 1 एक बार भंडीरयक्षयात्रा में जिनदास का मित्र उसे बिना पूछे ही दोनों बैलों को ले गया। उनको खूब दौड़ाया। दोनों बैल परिश्रान्त हो गए। उसने दोनों को लाकर श्रावक के घर बांध दिया। उसी दिन से दोनों ने चारा-पानी छोड़ दिया। अंत में श्रावक ने (दशविध भवनपतिदेवों में दूसरा प्रकार है नागकुमार। प्रज्ञापना और चिह्न प्रतिपादित हैं- भवनपति असुरकुमार नागकुमार सुपर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार द्वीपकुमार उदधिकुमार दिशाकुमार वायुकुमार स्तनितकुमार इन्द्र चमर, बलि धरण, भूतानन्द वेणुदेव, वेदा हरिकांत, हरिसह अग्निशिख, अग्निमाणव पूर्ण, विशिष्ट १२. देवों द्वारा साधु- वैयावृत्त्य जड़ तत्थ दिसामूढो, हवेज्ज गच्छो सबाल-वुड्डो उ । वणदेवयाऍ ताहे, णियमपगंपं तह करेंति ॥ सम्मद्दिट्ठी देवा, वेयावच्चं करेंति. साहूणं । ..'' (बृभा ३१०८, ३१०९ ) जब अटवी में बाल-वृद्ध सहित सारा गच्छ दिशा भ्रमित हो जाता है, तब मुनि कायोत्सर्ग के द्वारा वन देवता को आकंपित करते हैं । वे आकर उन्हें दिशा बोध करवाते हैं । सम्यग्दृष्टि देव साधु का वैयावृत्त्य करते हैं । भूतार्थनिर्णये तवोत्ति तपस्वी कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छति । (व्यभा १२४३ की वृ) Jain Education International ३१० आगम विषय कोश - २ दोनों बैलों को प्रतिबोध देकर अनशन कराया। फिर उन्हें नमस्कार मंत्र सुनाता रहा। वे मरकर नागकुमार देवयोनि में उत्पन्न हुए। नौका में आरूढ़ भगवान् को सुदाढ नामक मिथ्यादृष्टि नागकुमार देव ने उपसर्ग दिए। उसने संवर्तकवायु की विकुर्वणा नौका को डुबोना चाहा। इतने में कंबल-शबल देव उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान् को उपसर्ग से मुक्त किया । ( २/३४, ४०) में भवनपति देवों के दो-दो इन्द्र तथा उनके वर्ण शरीर - वर्ण कृष्ण पांडुर कनक रक्त रक्त रक्त पांडुर कनक जलकान्त, जलप्रभ शिलीन्ध्रपुष्प अश्व श्वेत हस्ती अमितगति, अमितवाहन वेलम्ब, प्रभंजन घोष, महाघोष श्याम संध्याराग मकर कनक श्वेत वर्धमानक तत्त्वार्थभाष्य (४/११) के अनुसार उदधिकुमार का चिह्न मकर और वायुकुमार का चिह्न अश्व है। विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमार का वर्ण अवदात तथा शेष सबका श्याम वर्ण है ।) वस्त्र-वर्ण रक्त शिलीन्ध्रपुष्प श्वेत नील नील नील For Private & Personal Use Only मुकुट - चिन्ह चूड़ामणि नागफण गरुड़ वज्र पूर्ण कलश सिंह तपस्वी यथार्थ का निर्णय करने के लिए कायोत्सर्ग के द्वारा देवता को आवर्जित कर उससे पृच्छा करता है । १३. पूर्वतप से देवायुबंध कैसे ? 'उववज्जति केण देवेसु ॥ पुव्वतव-संजमा होंति, रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागो संगो वुत्तो, संगा कम्मं भवे तेणं ॥ यत्र तपः तत्र नियमात् संयमः, यत्र संयमः तत्रापि नियमात् तपः । यथा यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा इति । सामाइयं छेदोवद्वावणियं परिहारविसुद्धियं सुहुमसंपरागं च एते पुव्वतवसंजमा । एते णियमा रागिणो भवंति । पश्चिमा तव - संजमा अरागिणो भवंति । तं च अहाख्यातचारित्रं इत्यर्थः । www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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