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________________ आगम विषय कोश- २ हैं। इससे आगे के देव सब प्रकार के प्रवीचार से मुक्त होते हैं। कामवासना की अल्पता के आधार पर उनका चित्तसंक्लेश भी अत्यल्प होता है । अप्रवीचार देव उत्तरोत्तर अधिकाधिक सुख का अनुभव करते हैं। देवियों की पहुंच आठवें स्वर्ग से आगे नहीं है । - तसू ४/८-१० ) ३०९ ९. अर्धसागरोपम स्थिति वाले देव का सामर्थ्य अन्नतरपमादजुत्तं, छलेज्ज अप्पिड्डिओ ण पुण जुत्तं । अद्धोदहिद्विती पुण, छलेज्ज जयणोवउत्तं पि॥ सरागसंजतो सरागत्तणतो इंदियविसयादि अण्णतरे पमादजुत्तो हवेज्ज, विसेसतो महामहेसु तं पमायजुत्तं पडिणीयदेवता अप्पिड्डिया खित्तादि छलणं करेज्ज । जणात्तं पुण साहुं जो अप्पिडितो देवो अद्धोदधीओ इत्ति सो ण सक्केति छलेउं । अद्धसागरोवमठितितो पुण जयणाजुत्तं पिछलेति, अत्थि से सामत्थं, तंपि पुव्ववेरसंबंधसरणतो कोति छलेज्ज । ( निभा ६०६६ चू) सरागसंयत सरागता के कारण इन्द्रियविषय आदि किसी न किसी प्रमाद से युक्त हो सकता है। विशेष रूप से पर्व के दिनों में स्वाध्यायसंलग्न प्रमत्त साधु को अल्प ऋद्धि वाले प्रत्यनीक देव छल सकते हैं, चित्त को विक्षिप्त कर सकते हैं। अर्धसागरोपम से न्यून स्थिति वाला अल्पर्द्धिक देव यतनायुक्त अप्रमत्त साधु को छल नहीं सकता। अर्ध सागरोपम की स्थिति वाले देव में इतना सामर्थ्य होता है कि वह पूर्वबद्ध वैर का स्मरण कर अप्रमत्त मुनि को भी छल सकता है। १०. व्यंतर देव : माणिभद्र आदि कुण्डलमेण्ठनाम्नो वानमन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवर्ती भूयान् लोकः संखडिं करोति । (बृभा ३१५० की वृ) कुंडलमेंठ नामक वानमंतर देव की यात्रा में भृगुकच्छ के परिसर में बहुत लोग भोज करते थे । पुणभद्दमाणिभद्दा सव्वाणजक्खा (सव्वजक्खाणं ) । (नि ११/८२ की चू) पूर्णभद्र और माणिभद्र देव यक्ष- व्यंतरों के इन्द्र हैं। Jain Education International देव ( व्यंतर - वानमंतर के सोलह भेद हैं, जिनमें से प्रत्येक के दो-दो इन्द्र हैं— व्यन्तर देव पिशाच भूत यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष महोरग गन्धर्व अणपन्न पणपन्न ऋषिवादी भूतवादी स्कन्दक महास्कन्दक कूष्माण्डक पतग इन्द्र काल, महाकाल सुरूप, प्रतिरूप पूर्णभद्र, माणिभद्र भीम, महाभीम किन्नर, किंपुरुष सत्पुरुष, महापुरुष अतिकाय, महाकाय गीतरति, गीतयशा सन्निहित सामान्य धाता विधाता ऋषि, ऋषिपालक ईश्वर, महीश्वर सुवत्स, विशाल हास्य, हास्यरति श्वेत, महाश्वेत पतंग, पतगगति -स्था २/३६३-३७८) ११. कंबल-शबल नागकुमार : महावीर उपसर्गमुक्त ....... कंबल - सबला य घाडितिनिमित्तं । अणुसट्टा कालगता, नागकुमारेसु उववण्णा ॥ वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं । मिच्छद्दिट्ठि परद्धो, कंबल - सबलेहिं तारिओ भगवं ॥ For Private & Personal Use Only मथुरायां भण्डीरयक्षयात्रायां कम्बल-शबलौ वृषभौ घाटिकेन - मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहितौ तन्निमित्तं सञ्जातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेषूपपन्नौ । वीरवरस्य भगवतो नावारूढस्य सुदाढो नागकुमार उपसर्गमकार्षीत् । (बृभा ५६२७, ५६२८ वृ) मथुरा में जिनदास श्रावक रहता था। कंबल और शबल नाम वाले दो बैल थे । श्रावक प्रासुक चारे से उनका पोषण www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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