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________________ आगम विषय कोश-२ ३११ अहवा अणसणादीया जावसुक्कज्झाणस्स आदिमा है या निष्कारण ही पैदा होता है? इस प्रश्न के समाधान में दो भेया, पुहुत्तवितक्कसवियारं एगत्तवियक्कअवियारं च, चार स्थविरों ने चार उत्तर दिए हैंएते पुव्वतवा'हुमकिरियानियट्टी वोच्छिन्नकिरिय- पूर्व तप, पूर्व संयम, कर्मिता और संगिता-इन चारों में मप्पडिवाई च एते पच्छिमा तवा, अहक्खायचारित्तं एक संगति है। चारों के समवाय से एक उत्तर बनता है। पूर्व पच्छिमसंजमो "एतेहिं पुव्वतवसंजमेहिं देवेहिं उववज्जति । तप का अर्थ है-सराग अवस्था में होने वाला तप और पूर्व सरागित्वात्। (निभा ३३३१, ३३३२ चू) संयम का अर्थ है-सराग अवस्था में होने वाला संयम । इन दो शिष्य ने पूछा-जीव देवगति में किस हेतु से उपपन्न उत्तरों का तात्पर्यार्थ यह है कि वीतराग संयम और वीतराग होता है? आचार्य ने कहा-पूर्व तप-संयम-सामायिक, तप की अवस्था में स्वर्गोत्पत्ति के हेतभूत आयुष्य का बंध छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय चारित्र रागी। नहीं होता, वह सराग संयम और सराग तप की अवस्था में के तथा पश्चिम तप-संयम-यथाख्यात चारित्र अरागी के होता ___ होता है, छठे, सातवें गुणस्थान में होता है। इसलिए तप और है। जहां तप है, वहां संयम है और जहां संयम है, वहां तप । संयम के साथ 'पूर्व' शब्द को जोड़ा गया है। मुख्यतया है, जैसे-जहां आत्मा है, वहां उपयोग है और जहां उपयोग रपयोग और जहां उपयोग स्वर्गोत्पत्ति के दो हेतु हैं-कर्मिता और संगिता। तप से कर्म है, वहां आत्मा है। की निर्जरा होती है और संयम से कर्म का निरोध होता है। __अथवा पूर्व तप का अर्थ है-निर्जरा के भेद-अनशन ___ इन दोनों से आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता। उसके बंध के से लेकर शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद-पृथक्त्ववितर्क सविचार दो कारण हैं-कर्म का अस्तित्व और संग (राग) का और एकत्ववितर्क अविचार पर्यंत । पूर्व संयम का अर्थ है अस्तित्व। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशद्धि और सक्ष्मसंपराय प्रश्न पूछा गया-देव के आयुष्य का बंध किस कर्म चारित्र। इस पूर्व तप-संयम के कारण सरागसंयमी देवलोक के उदय से होता है? उत्तर दिया गया—यह शरीरप्रयोग में उपपन्न होता है। राग और संग एकार्थक हैं। नामकर्म के उदय से होता है। कर्म बंध का मल कारण हैपश्चिम तप है-शुक्लध्यान के अंतिम दो भेद-सूक्ष्म शरीरप्रयोग नामकर्म का उदय। इसके अतिरिक्त देवगति योग्य कर्म बंधने के हेत चार बतलाये गये हैं-१.सराग संयम क्रियाअनिवृत्ति और समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति । पश्चिम संयम है-यथाख्यात चारित्र। पश्चिम तप-संयम वीतराग के होता है, २. संयमासंयम ३. बालतप ४. अकाम निर्जरा। ये चारों इसलिए उससे देवायु का बंध नहीं होता। देवगति के आयुष्य बंध के हेतु हैं। उसके बंध का कारण (कालिकपुत्र नामक स्थविर ने श्रमणोपासकों से कहा (साधकतम साधन या साक्षात् कारण) है-शरीरप्रयोग नामकर्म आर्यो! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। महिल का उदय। नामक स्थविर ने कहा-पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में आयुष्य का बंध संग या राग के अस्तित्व में ही होता उपपन्न होते हैं। आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने कहा-कर्म है; इसलिए वह भी देवत्व-प्राप्ति का एक हेतु बतलाया की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। काश्यप नामक गया है। तात्पर्य की भाषा में निर्जरा के साथ पुण्य का बंध स्थविर ने कहा-आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होता है, इसलिए संयम और निर्जरा की साधना देवगति का होते हैं। हेतु बनती है। -भ २/१०२ भाष्य) धर्म के दो तत्त्व हैं-संयम और व्यवदान। संयम के द्रव्य-गुण और पर्याय का आश्रय। द्वारा कर्म का निरोध होता है और व्यवदान के द्वारा कर्म की निर्जरा होती है। ये दोनों स्वर्गोत्पत्ति के कारण नहीं हैं, फिर | १. द्रव्यस्कंध और समय-स्थिति कोई जीव स्वर्ग में कैसे उपपन्न होता है ? उसका कोई कारण २. गुरुलघु-अगुरुलघु द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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