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________________ जिनकल्प २५४ आगम विषय कोश-२ सीहम्मि व मंदरकंदराओ, नीहम्मिए तओ तम्मि। अथवा उनके आवश्यिकी, नैषेधिकी तथा गृहस्थ चक्खुविसयं अईए, अयंति आणंदिया साहू ॥ विषयक उपसंपदा-इन तीनों के अतिरिक्त शेष मिथ्याकार आभोएउं खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। आदि सात समाचारियां नहीं होती। गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं॥ ० पशु-पक्षी निवारण की मर्यादा (बृभा १३७४, १३७५, १३७७) गिहिणोऽवरज्झमाणे, सुण-मज्जारादि अप्पणो वा वि। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के साथ पूर्वस्थान से वारेऊण न कप्पति, जिणाण थेराण तु गिहीणं॥ निरपेक्ष होकर दूसरे स्थान पर चला जाता है, वैसे ही जिनकल्प (निभा ३८३) को स्वीकर करने वाला मुनि अपने पात्रों के साथ गण से श्वान, मार्जार आदि जीवजन्तु गृहस्थ को बाधा पहुंचा निरपेक्ष होकर माएकल्प प्रायोग्य क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर रहे हों या अपने ही आहार आदि की क्षति कर रहे हों तो देता है। वह तीसरे प्रहर के प्रारंभ से समाप्ति तक चलता है जिनकल्पी मुनि उन अपराधियों का निवारण नहीं करते। क्योंकि जिनकल्प के विहार का समय केवल तीसरा प्रहर ही स्थविरकल्पी पशु-क्षियों से अपने आहार आदि की निर्दिष्ट है, शेष प्रहर नहीं। जहां चौथा प्रहर प्रारम्भ होता है, रक्षा कर सकते हैं किन्तु गृहस्थ की वस्तु को कोई हानि वहां उसे ठहरना ही पड़ता है। पहंचा रहा हो तो गच्छवासी उसका निवारण नहीं कर सकते। पर्वत की कन्दरा से निकलते हुए सिंह की तरह १२. जिनकल्प-साधना के सत्ताईस द्वार गच्छ से निष्क्रमण करने वाले आचार्य या मुनि का साधु सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदणा कइ जणा य। कुछ दूरी तक अनुगमन करें। उसके बाद जब वे आंखों से थंडिल्ल वसहि केच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे॥ अदृश्य हो जाएं तब आनन्दित होकर अपने स्थान पर आ ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य। जाएं। सभी हृष्ट-तुष्ट होकर यह भावना करें कि अहो! ये पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ आचार्य सुखसेवनीय स्थविरकल्प को छोड़कर अति दुष्कर भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य। अभ्युद्यत विहार-जिनकल्प को स्वीकार कर रहे हैं। आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य॥ वे जिनकल्प प्रतिपत्ता मनि मास-निर्वहण योग्य क्षेत्र (बृभा १३८२-१३८४) को निर्व्याघात समझकर वहां रहते हैं और अपने आचार का जिनकल्प की साधना के सत्ताईस बिन्दु हैंपरिपालन करते हैं। १. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. कतिजन-पृच्छा ११. जिनकल्पी की सामाचारी ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छ्वसंपदंच गिहिएसु। ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक अन्ना सामायारी, न होंति से सेसिया पंच॥ ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप आवासियं निसीहियं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिएसु। ६. कितने? १५. संस्थापनता २४. अलेप सेसा सामायारी, न होंति जिणकप्पिए सत्त॥ ७. स्थण्डिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल (बृभा १३७९, १३८०) ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा जिनकल्पी पांच प्रकार की सामाचारी का प्रयोग करते ९. कब तक? १८. दीप २७. मासकल्प हैं-१. आवश्यिकी २. नैषेधिकी ३. मिथ्याकार ४. आपृच्छा ५. ० श्रुत, संहनन' वेदना ( ध्रुवलोच.).... उपसम्पदा (गृहस्थविषयक)। इच्छाकार आदि पांच सामाचारी आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स। उनके नहीं होती। तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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