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________________ आगम विषय कोश-२ २५३ जिनकल्प करे। यह संभव न हो तो अपने गण को अवश्य बुलाए। से क्षमायाचना करता है, तब उसमें छह गुण निष्पन्न होते हैंफिर वह तीर्थंकर के पास जिनकल्प स्वीकार करे। उनके १. निःशल्यता-वह शल्यरहित हो जाता है। अभाव में गणधर, चतुर्दशपूर्वी या अभिन्नदशपूर्वी के पास २. विनय-विनय की प्रतिपत्ति होती है। जिनकल्प स्वीकार करे। यदि इनमें से किसी की भी ३. मार्गदीपन-क्षमायाचना का मार्ग उद्दीप्त होता है। उपलब्धि न हो तो (अपने गण के समक्ष) वटवृक्ष, अशोक ४. लाघव-अपराध-भार से मुक्ति मिल जाती है। या अश्वत्थ वृक्ष के नीचे जिनकल्प स्वीकार करे। ५. एकत्व-'मैं अकेला हूं'-ऐसा भाव पुष्ट होता है। ७. जिनकल्प प्रतिपत्ता द्वारा क्षमायाचना ६. अप्रतिबंध-ममत्व के छेदन से शिष्य-प्रतिबंध नहीं रहता। गणि गणहरं ठवित्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे। ९. स्थापित आचार्य और शिष्यों को शिक्षा सव्वं च बाल-वुटुं, पुव्वविरुद्धे विसेसेणं॥ अह ते सबाल-वुड्डो, गच्छो साइज्ज णं अपरितंतो। जइ किंचि पमाएणं, न सुटु भे वट्टियं मए पुव्वि।। एसो हु परंपरतो, तुमं पि अंते कुणसु एवं॥ तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ पुव्वपवित्तं विणयं, मा हु पमाएहिँ विणयजोगेसु। आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। जो जेण पगारेणं, उववज्जड तं च जाणाहिं॥ खामिंति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं॥ ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ अ मा य णं तुब्भे। (बृभा १३६७-१३६९) परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुज्जो॥ गच्छाधिपति यदि जिनकल्प स्वीकार करना चाहे तो (बृभा १३७१-१३७३) वह अपने शिष्य को गणाचार्य के रूप में स्थापित कर श्रमणसंघ आयुष्मन् ! तुम खेदरहित होकर सबाल-वृद्ध इस से, अपने गच्छ के आबाल-वृद्ध सभी मनियों से क्षमायाचना गच्छ का स्मारणा और वारणा के द्वारा सम्यग् पालन करना। करता है और विशेष रूप से उनसे क्षमा मांगता है, जिनकी शिष्य आचार्य का यही क्रम है कि वह अव्यवच्छित्तिकारक उसने किसी प्रकार से विराधना की हो। वह उनसे कहता शिष्य का निष्पादन कर शक्ति रहते जिनकल्प स्वीकार करे। है-'मनिवरो। प्रमादवश मैंने यदि आपके प्रति उचित व्यवहार तुम भी अंत समय में शिष्य-निष्पादन का कार्य पूर्ण हो जाने पर न किया हो तो मैं निःशल्य और निष्कषाय होकर क्षमा मांगता जिनकल्प स्वीकार कर लेना। हूं।' आचार्य द्वारा क्षमायाचना करने के पश्चात् सभी मुनि जो बहुश्रुत और पर्यायज्येष्ठ मुनि हैं, उनके प्रति पृथ्वी पर सिर टिकाकर, आनन्द के अश्रओं से परिपर्ण नेत्रों से यथोचित विनय करने में प्रमाद मत करना। तप, स्वाध्याय, रत्नाधिक के क्रम से क्षमायाचना करते हैं। आचार्य भी । ने । आचार्य श्री वैयावृत्त्य आदि विभिन्न कार्यों में से जो साधु जिस कार्य में पर्यायज्येष्ठ के क्रम से ही क्षमायाचना करते हैं। रुचि रखता है, उसे जानकर उसी कार्य में योजित करना। जिनकल्प स्वीकार करने वाला यदि गणी नहीं है, शिष्यो! ये आचार्य हमारे से छोटे हैं। हम समान सामान्य साधु है तो वह किसी की नियुक्ति नहीं करता, पर्याय वाले हैं। हमारी अपेक्षा ये अल्पश्रुतज्ञानी हैं, तब हम केवल समूचे गण से क्षमायाचना करता है। क्यों इनके आज्ञा और निर्देश का पालन करें? इस प्रकार तुम लोग आचार्य की अवज्ञा मत करना। वर्तमान में ये मेरे स्थानीय ८. क्षमायाचना की निष्पत्ति हैं, गुरुतर गुणों से युक्त हैं, इसलिए तुम सब के लिए विशेष खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। रूप से पूजनीय हैं। लाघवियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे॥ णकप्प॥ १०. गण-निष्क्रमण विधि (बृभा १३७०) पक्खीव पत्तसहिओ, सभंडगो वच्चए निरवयक्खो। जिनकल्प की साधना स्वीकार करने वाला जब मुनियों एगंतं जा तइया, तीएँ विहारो से नऽन्नासु॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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