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________________ आगम विषय कोश-२ २५५ जिनकल्प पढमिल्लुगसंघयणा, धिईऍ पुण वज्जकुड्डसामाणा।" पर वस्त्र का परिष्ठापन भी वहीं करते हैं। जइ वि य उप्पज्जंते, सम्मं विसहंति ते उ उवसग्गे। वे शौचक्रिया से निवृत्त होकर आचमन नहीं लेते रोगातंका चेवं, भइआ जइ होति विसहति ॥ क्योंकि उनका मल अत्यल्प और अभिन्न होता है। इसका अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वियणा भवे दुविहा। कारण है-अल्पमात्रा में रूक्ष भोजन करना। आचमन न धुवलोआई पढमा, जरा-विवागाइ बिइएक्को॥ लेना उनका कल्प भी है। दीर्घकालीन उपसर्ग होने पर भी उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे। वे उच्चार तथा प्रस्रवण का विसर्जन अस्थंडिल में नहीं तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे॥ करते। अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं। ० वसति ....... कतिजन? दीहे वि उ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे॥ अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओr" (बृभा १३८५-१३९०) बिलेनढक्कंति नखज्जमाणिं, गोणाई वारिंतिन भज्जमाणिं। सम्पूर्णदशपूर्वधरः पुनरमोघवचनतया प्रवचन- दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिंति, ...॥ प्रभावनापरोपकारादिद्वारेणैव बहुतरं निर्जरालाभमासाद- किच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु। यति अतो नासौ जिनकल्पं प्रतिपद्यते।(बृभा १३८५ की वृ) इह अच्छसु मा य इहं, तण-फलए गिण्हिमे मा य॥ १. श्रुत-जिनकल्पी का जघन्य श्रुत प्रत्याख्यान नामक नवम सारक्खह गोणाई, मा य पडिंतिं उविक्खहउ भंते! । पूर्व की तीसरी 'आचार' नामक वस्तु है। इसका अध्ययन अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतऽचियत्तपरिहारी॥ कर लेने से कालज्ञान हो जाता है। जिसका ज्ञान इससे न्यून पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न संति। होता है, वह जिनकल्प स्वीकार नहीं कर सकता। उत्कृष्टतः ___जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि॥ उसका श्रुतपरिमाण है-कुछ कम दश पूर्व। (बृभा १३९१-१३९५) अमोघवचन वाले होते हैं। वे प्रवचन ८. वसति-जिनकल्पी ममत्वरहित होते हैं। उनकी वसति प्रभावना के द्वारा बहुतर निर्जरा का लाभ प्राप्त कर लेते हैं, नियमतः परिकर्मरहित होती है (उनके लिए वसति का अतः वे जिनकल्प साधना स्वीकार नहीं करते। उपलेपन आदि परिकर्म नहीं किया जाता)। वे वसति की २. संहनन-उनके प्रथम (वज्रऋषभनाराच) संहनन होता है। चिंता से मुक्त रहते हैं, बिलों को धूलि आदि से नहीं ढकते, उनकी मनःप्रणिधान रूप धृति स्वीकृत साधना के निर्वहन में पशुओं के द्वारा खाए जाने या तोड़े जाने पर भी वसति की रक्षा वज्रकुड्य के समान होती है। के लिए पशुओं का निवारण नहीं करते, द्वार बंद नहीं करते. ३, ४. उपसर्ग-आतंक-जिनकल्पी के उपसर्ग, रोग और अर्गला नहीं लगाते। आंतक होते हैं, ऐसा एकान्ततः नियम नहीं है। यदि होते हैं जब वसति की याचना करते हैं और गृहस्वामी तो वे उनको समभाव से सहन करते हैं। वसतिविषयक कुछेक नियंत्रण की बातें कहता है तो वे वैसी ५. वेदना-उनके दो प्रकार की वेदना होती है वसति का परिहार कर देते हैं। यथा० आभ्युपगमिकी-प्रतिदिनभावी लुंचन, आतापना, तपस्या ९. आप यहां कितने समय तक रहेंगे? १०, ११. इस स्थान आदि से उत्पन्न वेदना। में आप मल-मूत्र का विसर्जन करें, उसमें नहीं। १२. आप ० औपक्रमिकी-बुढ़ापा तथा कर्मविपाक जनित वेदना। यहां बैठे, यहां नहीं। १३. अमक तणफलक आप काम में ६. कितने?-वे अकेले ही साधना के लिए प्रस्थित होते हैं। लें, अमुक नहीं। १४. गाय-बैल आदि से वसति की रक्षा ७. स्थण्डिल-वे उच्चार-प्रस्रवण का उत्सर्ग प्रथम (अनापात करें। १५. वसति की टूट-फूट की उपेक्षा न करें। और असंलोक) स्थण्डिल में करते हैं। प्रयोजन पूर्ण होने १६-२०. प्राभृतिका आदि-जिस वसति में बलि दी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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