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________________ जिनकल्प परिकर्म के दो प्रकार हैं- पाणि परिकर्म और पात्र परिकर्म । • अथवा सचेल परिकर्म और अचेल परिकर्म । • अथवा आहार और उपधि विषयक परिकर्म । भविष्य में जिनकल्पिक जिस रूप में रहना चाहता है, उसी रूप में परिकर्म का अभ्यास कर अपने आपको भावित करता है। अभिग्रह - सात प्रकार की पिण्डैषणाओं में प्रथम दो को सर्वथा छोड़कर शेष पांच (उद्धृता, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता, उज्झितधर्मा) में से किन्हीं दो के द्वारा एक से आहार और दूसरी से पानक ग्रहण करता है, शेष तीन उस दिन आहार- पानी ग्रहण नहीं करता । * पिंडैषणा - पाणैषणा - विवरण द्र पिण्डैषणा ....... उवहिं च अहागडयं, गिण्हइ जावऽन्नणुप्पाए ॥ (बृभा १२८५) जब तक जिनकल्पप्रायोग्य, शुद्धएषणायुक्त और प्रमाणोपेत वस्त्र आदि प्राप्त नहीं होते, तब तक वह यथाकृत उपधि ग्रहण करता है। अपने कल्पप्रायोग्य उपकरण प्राप्त होने पर पुराने उपकरण को त्याग देता है । ० इंद्रिय - विजय का अभ्यास इंदिय - कसाय - जोगा, विणियमिया जइ वि सव्वसाहूहिं । तह वि जओ कायव्वो, तज्जयसिद्धिं गणितेणं ॥ (बृभा १२८६) यद्यपि सभी साधु इन्द्रिय, कषाय और योग पर विजय प्राप्त करते हैं फिर भी जिनकल्पप्रतिपत्ता को अपने कल्प की सफलता के लिए, इन्द्रियजय से होने वाली सिद्धि की प्राप्ति के लिए उन पर अवश्य विजय प्राप्त करनी चाहिए (जिससे इष्टअनिष्ट विषयों का योग-वियोग होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति न हो, दुर्वचन सुनकर भी कषाय का उदय न हो, चित्त दुष्प्रणिधान से मलिन न हो) । • उत्कुटुक आसन का अभ्यास उक्कुडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसुववेसे । पडिवन्नो पुण नियमा, उक्कुडुओ केइ उ भयंति ॥ Jain Education International २५२ आगम विषय कोश - २ तं तु न जुज्जइ जम्हा, अणंतरो नत्थि भूमिपरिभोगो । तम्मिय हु तस्स काले, ओवग्गहितोवही नत्थि ॥ (बृभा १३६४, १३६५ ) वे 'उत्कुटुक आसन का अभ्यास करते हैं अथवा पृथ्वी शिलापट्ट आदि यथासंस्तृत स्थानों पर बैठते हैं । जिनकल्प प्रतिपन्न मुनि नियमतः उत्कुटुक आसन में ही बैठते हैं। कुछेक आचार्य इसमें बैठने का विकल्प भी मानते हैं, किन्तु वह संभव नहीं है। क्योंकि मुनि अव्यवहित भूमि (मुंडभूतल ) पर बैठ नहीं सकते और उनके पास औपग्रहिक उपधि (निषद्या आदि) नहीं होती। अतः वे उत्कुटुक आसन में ही रहते हैं । परिणाम आदि की विशुद्धि परिणाम- जोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य । सिज्जा- संथारविसोहणं च विगईविवेगो य ॥ तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ जिणकप्पियविहारं ॥ (बृभा १३५९, १३६० ) ० जिनकल्प प्रतिपत्ता मुनि गुरु आदि के प्रति अपने ममत्व भाव का विच्छेद कर परिणामों की विशुद्धि करे तथा आवश्यक प्रवृत्तियों को यथासमय संपादित कर योगों की विशुद्धि करे । वह पुरानी उपधि का परिहार करे, गण का परित्याग करे, शय्या और संस्तारक का विशोधन करे तथा विकृति का परिहार करे । शिष्य - निष्पादन द्वारा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति करने के पश्चात् वह सत्पुरुषों द्वारा आराधित, अत्यन्त दुरनुचर, भविष्य एकान्त हितकारी जिनकल्पविहार को स्वीकार करे । ६. जिनकल्प का स्वीकरण दव्वाई अणुकूले, संघं असती गणं समाहूय । जिण गणहरे य चउदस, अभिन्न असती य वडमाई ॥ (बृभा १३६६) जिनकल्प को स्वीकार करने वाला मुनि सभी प्रकार से अपने आपको परिकर्मित कर लेने के पश्चात् अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में समस्त संघ को एकत्रित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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