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________________ आगम विषय कोश-२ २२७ चित्तचिकित्सा एकत्रित कर उसकी परिचर्या के लिए निवेदन किया जाता है, होने से प्रमाण है। अथवा परवशता के कारण वह शुद्ध ही फिर कुल आदि यथाक्रम से उसकी सेवा करते हैं। है, किंतु अगीतार्थ को प्रतीति दिलाने के लिए परिषद् के ५.क्षिप्तचित्त की परवशता मध्य उसे लघुस्वक (निर्विकृतिक तप रूप) प्रायश्चित्त पासंतो वि य काये, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। प्रदान करना चाहिए। जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो॥ ६. दृप्त और क्षिप्त में अंतर यथा परेण प्रेरित आत्मानं विधारयितुं असमर्थः ...''जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवतिऽनिच्छियव्वाई॥ सन् पश्यन्नपि कायान् पृथिवीकायिकादीन् विराधयन् इति एस असम्माणो, खित्तोऽसम्माणतो भवे दित्तो। अन्निकापुत्राचार्य इवनिर्दोषः। (व्यभा १११६ वृ) अग्गी व इंधणेहिं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु॥ किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा प्रेरित होने पर अपने को लाभमदेण व मत्तो, अधवा जेऊण दुज्जए सत्तू। रोकने में असमर्थ व्यक्ति पथ्वीकाय आदि को देखता हआ दित्तम्मि सातवाहण भी उसकी विराधना करता है, पर वह अन्निकापुत्राचार्य की (व्यभा ११२३-११२५) भांति निर्दोष होता है। यही स्थिति क्षिप्तचित्त की है। जो दृप्तचित्त होता है, वह असंबद्ध प्रलाप करता है। (एक बार अर्णिकापुत्र आचार्य गंगा के उस पार जाने क्षिप्तचित्त अपहृतचित्तता के कारण मौन भी रहता है। के लिए नौका में चढे। नौका के जिस भाग में वे बैठे. वह भाग क्षिप्तचित्त का कारण असम्मान और दृप्तचित्त का पानी में डूबने लगा, तब वे नौका के ठीक मध्य में बैठ गये। कारण विशिष्ट सम्मानसम्प्राप्ति तथा लाभ का गर्व है। ईंधन अब तो पूरी नौका ही डूबने लगी। तत्काल लोगों ने सूरि को से अग्नि की भांति हर्षातिरेक से व्यक्ति उद्दीप्त हो जाता है। जल में फेंक दिया और एक व्यंतरी ने पूर्व वैर का प्रतिशोध लेने दुर्जेय शत्रुओं को जीतकर भी व्यक्ति दृप्तचित्त हो जाता है। के लिए उन्हें शूल में पिरो दिया। अर्णिकापुत्राचार्य परमकोटि यहां शातवाहन की दृप्तता उदाहरणीय है। की समता से संवलित करुणा-नौका में आरूढ़ हो सोचने .शातवाहन दृष्टांत लगे-हा! मेरी रक्तधारा से जलकायिक जीवों की हिंसा हो रही मधरा दंडाऽऽणती........दो वि पाडेउं॥ है-इस परम शुक्ल भावधारा से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो. सुतजम्म महुरपाडण, निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो। गया।-उप्रा भाग १ पृ. १८, १९) सयणिज्जखंभकुड्डे, कुट्टेइ इमाइ पलवंतो॥ ० क्षिप्तचित्त : प्रायश्चित्त संबंधी आदेश ..""कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं॥ "तेगिच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिन्नि सुद्धो वा॥ विद्दवितं केणं ति य, तुब्भेहिं पायतालणा खरए। ."परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते॥ कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ठ त्ति य दंसणे भोगा॥ (व्यभा ११०५, ११०६) (व्यभा ११२६, ११२७, ११३०, ११३१) चिकित्सा द्वारा क्षिप्तचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर जो गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठान नगर। शातवाहन प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसके संबंध में तीन आदेश हैं- राजा । खरक अमात्य । दण्डनायक ने सूचना दी-राजन्! हमने १. कुछ आचार्य मानते हैं-उसे गुरु प्रायश्चित्त में स्थापित उत्तर मथुरा और दक्षिण मथुरा पर अधिकार कर लिया है। करना चाहिए। अंत:पुर से एक दूती ने आकर कहा-देव! पट्टदेवी २. एक मत है-लघु प्रायश्चित्त देना चाहिए। ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। एक अन्य व्यक्ति ने आकर ३. अन्य मत है-लघुस्वक देना चाहिए। कहा-राजन् ! अमुक प्रदेश में विपुल निधि प्रकट हुई हैं। इस तीसरा आदेश व्यवहार सूत्र (२/६) में प्रतिपादित प्रकार एक साथ तीन शुभ संवाद सुनकर राजा अति हर्ष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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