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________________ चित्तचिकित्सा त्रिभुवनवर्ती देवों द्वारा पूजित तीर्थंकर भी नीरज ( कर्मरज से रहित ) हो सिद्ध हो गये। गौतमस्वामी जैसे चरणगुणप्रभावक, महासत्त्वसम्पन्न स्थविर महर्षि भी मुक्त हो गये ( तो शेष प्राणियों की तो बात ही क्या ? संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध करो, शोक मत करो।) वह शोचनीय नहीं है, जो दृढ़ता से चारित्र का पालन कर कालकवलित हुआ है। शोचनीय वह जो संयम में दुर्बल होकर विहरण करता है। ० भयजन्य क्षिप्तता: अभय का प्रदर्शन कम्म एससीहो, गहितो अध धाडितो य सो हत्थी । खुड्डलतरगेण तु मे, ते वि य गमिया पुरा पाला ॥ सत्थऽग्गिं थंभेडं, पणोल्लणं ...........*॥ (व्यभा १०८८, १०८९) कोई शिष्य हाथी या सिंह के भय से विक्षिप्त हुआ हो तो गुरु पहले एकांत में हस्तिपाल या सिंहपाल को सारी स्थिति बता देते हैं, फिर क्षिप्तचित्त को वहां ले जाते हैं। सबसे पहले छोटा बालक निर्भयता से सिंह के कान पकड़ता है और दूसरा बालक हाथी की सूंड, कान आदि का स्पर्श करता है तब गुरु कहते हैं - देखो, यह बालक भी हाथी के साथ क्रीड़ा कर रहा है। सिंह और हाथी को भी प्रेरित कर रहा है, तो तुम व्यर्थ में ही क्यों डरते हो ? ऐसा देखकर वह स्वस्थ हो जाता है। यदि कोई शस्त्र या अग्नि को देखकर क्षिप्तचित्त हुआ हो तो विद्या-बल से शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर क्षिप्तचित्त व्यक्ति के देखते-देखते उस शस्त्र और अग्नि को पैरों तले रौंदकर दिखाते हैं । • वातजन्य क्षिप्तता और चिकित्सा वातश्लेष्मापहारः । निद्ध महुरं च भत्तं, करीससेज्जा य णो जहा वातो।" शय्या च करीषमयी सोष्णा भवति, उष्णे च (बृभा ६२१६ वृ) वायुरोग से उत्पन्न विक्षिप्तता स्निग्ध-मधुर भोजन और करीष की शय्या के प्रयोग से दूर की जा सकती है। करीषमयी शय्या उष्ण होती है। उष्णता से वात और श्लेष्म Jain Education International आगम विषय कोश- २ का नाश होता है। जिससे वायु को अवकाश न मिले, वैसा उपाय करना चाहिए । २२६ उपसर्गजन्य क्षिप्तता: तप-जप प्रयोग .....देविय धाउक्खोभे, णातुस्सग्गो ततो किरिया ॥ .....यदि दैविक इति कथितं तथा प्रासुकैषणीयेन तस्या उपचारः, शेषसाध्वीनां तपोवृद्धिः, तदुपशमनाय च मन्त्रादिस्मरणम् । (बृभा ६२१६ वृ) O अमुक साधु साध्वी भूत-प्रेत आदि देवकृत उपद्रव से विक्षिप्त है या धातुक्षोभ से ? यह जानने के लिए देवाराधना हेतु कायोत्सर्ग किया जाता है और उस आकंपित देवता के कथन के अनुसार उपचार किया जाता है। यदि देवकृत उपसर्ग के कारण विक्षिप्तता हो तो प्रासुक - एषणीय द्रव्यों से उसका उपचार किया जाता है। शेष साधु-साध्वियां अपने तप में वृद्धि करते हैं तथा मंत्र आदि के स्मरण द्वारा उपद्रव का शमन करते हैं। ४. क्षिप्तचित्त-संरक्षण : संघ द्वारा वैयावृत्त्य मिउबंधेहि तथा णं, जमेंति जह सो सयं तु उट्ठेति । उव्वरगसत्थरहिते, बाहि कुडंगे असुण्णं च ॥ छम्मासे पडियरिडं, अणिच्छमाणेसु भुज्जतरगो वा । कुल- गण - संघसमाए, पुव्वगमेणं निवेदेज्जा ॥ आहार- उवहि- सेज्जा, उग्गम-उप्पायणादिसु जतंता।" (व्यभा १०९६, ११००, ११०४ ) क्षिप्तचित्त को मृदु बंधन से बांध देते हैं, जिससे वह स्वयं उठ बैठ सके। उसे उस कक्ष में रखा जाता है, जिसमें शस्त्र आदि न हो और बाहर से द्वार को वंशजालिका, डोरी आदि से बंद कर दिया जाता है। उसे एकाकी नहीं छोड़ा जाता, बारी-बारी से एक-एक व्यक्ति को उसकी सेवा में नियुक्त किया जाता है। उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से शुद्ध आहार, उपधि, शय्या आदि के द्वारा छह मास तक उसकी सेवापरिचर्या की जाती है, फिर भी वह स्वस्थ नहीं होता है और अत्यधिक सेवा के कारण परिचारक साधु परिश्रांत हो जाने पर अब सेवा करना नहीं चाहते हैं तो कुल, गण और संघ को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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