SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चित्तचिकित्सा २२८ आगम विषय कोश-२ कारण दीप्तचित्त हो गया। वह शय्या को पीटने लगा, खंभों व्यक्ति दीप्तचित्त हो जाता है। और दीवारों को तोड़ने लगा और असमंजस-अनर्गल प्रलाप इस दीप्तता-निवारण के लिए उसके द्वारा आनीत करने लगा। कुशल मंत्री खरक ने असंबद्ध प्रलापी राजा को आहार आदि दुर्लभ द्रव्यों की उसके समक्ष जुगुप्सा करनी स्वस्थ करने के लिए उपाय खोजा। उसने सब खंभों-दीवारों चाहिये-यह वस्तु अच्छी नहीं है, इसमें अमुक दोष है। को तुड़वा दिया। ये किसने विनष्ट किये? राजा के पूछने पर अथवा अदृश्य-दृष्टांत से भावना करनी चाहिए-देखो, अमुक खरक मंत्री ने निष्ठुरता से कहा-आपने। कुपित राजा ने मंत्री व्यक्ति तुम्हारे से शतभाग या सहस्र भाग हीन है, फिर भी को पैरों से रौंदा। तत्काल पूर्व संकेतित पुरुषों ने मंत्री को उत्कृष्ट वस्तु लेकर आया है। इस अपभ्राजना से वह उठाकर छिपा दिया। राजा ने पूछा-मंत्री कहां है ? 'वह स्वस्थचित्त हो जाता है। आपके द्वारा ही मारा गया है।' यह सुनकर वह विलाप करने विजित होने के कारण जिसका चित्त दीप्त हआ हो, लगा। उसके स्वस्थ होने पर मंत्री को प्रस्तुत किया गया। उसके समक्ष पूर्व प्रज्ञापित चरक आदि प्रचण्ड वादी को प्रस्तुत समग्र वत्तांत सन राजा प्रसन्न हआ और मंत्री को विपल कर किसी छोटे साधु के द्वारा उसे पराजित किया जाता है। इस भोग-सामग्री प्रदान की। अपभ्राजना से वह दीप्तचित्त मनि स्वस्थ हो जाता है। ७. दीप्तचित्तता के कारण और निवारण ८. यक्षाविष्ट व क्षिप्त-दीप्त में अन्तर महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग-पडिग्गहे फलग सङ्के। पोग्गलअसुभसमुदओ, एस अणागंतुको दुवेण्हं पि। पासादे कप्पटे, वादं काऊण वा दित्तो॥ जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुगो होति॥ पुंडरियमादियं खलु, अज्झयणं कड्डिऊण दिवसेणं। अहवा भय सोगजुतो, चिंतद्दण्णो व अतिहरिसितो वा।" हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होज्जाहि कोई उ॥ (व्यभा ११४०, ११४१) दिवसेण पोरिसीय व, तुमए ठवियं इमेण अद्धण। यक्षाविष्ट व्यक्ति पीड़ित होता है। उस पीड़ा का एतस्स नत्थि गव्वो, दुम्मेधतरस्स को तुझं॥ हेतुभूत अशुभ पुद्गलसमूह नियमतः आगंतुक होता है। तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिटुंतो भावणा असरिसेणं।.... भय-शोकातुर और चिंतातुर क्षिप्तचित्त तथा अतिहर्षित चरगादि पण्णवेडं, पुव्वं तस्स पुरतो जिणावेंति। दृप्तचित्त में पीड़ा के हेतुभूत अशुभ पुद्गल अनागंतुक (स्वशरीर ओमतरागेण ततो, पगुणति ओभामितो एवं॥ संभवी) होते हैं। (व्यभा ११३२, ११३३, ११३५, ११३६, ११३९) । ९. यक्षावेश के कारण : दो दृष्टांत 'पुण्डरीक' जैसे महान् अध्ययन को मैंने एक दिन या । पुव्वभवियवरेणं, अहवा रागेण रंगितो संतो। एक प्रहर में ही पढ़ लिया है-इस अहं से मुनि दीप्तचित्त हो एतेहि जक्खविट्ठो, सेट्ठी सज्झिलग वेसादी॥ सकता है। आचार्य कहते हैं-देखो-अमुक शिष्य ने आधे प्रहर सेट्ठिस्स दोन्नि महिला, पिया य वेस्सा य वंतरी जाता। में ही इस अध्ययन को पढ़ लिया है। फिर भी इसे गर्व नहीं है। सामन्नम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ तुम्हें अपनी दुर्मेधा का गर्व क्यों? इस प्रज्ञापन से दीप्तचित्त को जेट्टगभाउगमहिला, अज्झोवण्णाउ होति खुड्डुलए। अपनी बुद्धि की अल्पता का अनुभव होता है और वह स्वस्थ धरमाण मारितम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया। हो जाता है। (व्यभा ११४२-११४४) उत्कृष्ट आहार, रत्नकंबल आदि बहुमूल्य उपधि, पूर्वभविक वैर अथवा रागरंजित होने के कारण व्यक्ति चम्पक, तिनिशपट्ट आदि फलक, दातार श्रावक, प्रासाद आदि यक्षाविष्ट होता है। उपाश्रय, रूपलावण्यसम्पन्न-प्रज्ञानिधान शिष्य और शास्त्रार्थ श्रेष्ठी दष्टांत-एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय, दुसरी में विजय-इन सब की उपलब्धि के गर्व से, अतिहर्ष से अप्रिय । अप्रिया अकामनिर्जरा के कारण मरकर व्यंतरी बनी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy