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________________ आगम विषय कोश - २ १७. आचार्य - उपाध्याय और साध्वी तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स तीसवासपरियाया समणीए निग्गंथीए कप्पड़ उवज्झायत्ताए उद्दित्तिए ॥ ७५ पंचवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स सट्ठिवासपरियायाए समणीए निग्गंथीए कप्पड़ आयरियत्ताए उद्दित्तिए ॥ (व्य ७/२०, २१) तीस वर्ष की संयमपर्याय वाली श्रमणी निर्ग्रन्थी तीन वर्ष के संयमपर्याय वाले श्रमण निर्ग्रथ को उपाध्याय के रूप में उद्दिष्ट कर सकती है। साठ वर्ष की संयमपर्याय वाली श्रमणी निर्ग्रथी पांच वर्ष के मुनिपर्याय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ को आचार्य के रूप में स्वीकार कर सकती है। ० स्थविरा साध्वी : निश्रा संबंधी विकल्प गीताऽगीता बुड्ढा, अवुड्डा व जाव तीसपरियागा । अरिहति तिसंगहं सा, दुसंगहं वा भयपरेणं ॥ वयपरिणीता य गीता, बहुपरिवारा य निव्वियारा य । होज अणुवज्झाया, अपवत्तिणि यावि जा सट्ठी ॥ एमेव अणायरिया, थेरी गणिणी व होज्ज इतरा य । कालगतो सण्णाय व दिसाऍ धारेंति पुव्वदिसं ॥ बहुपच्चवाय अज्जा, नियमा पुणऽसंग य परिभूता । संगहिता पुण अज्जा, थिरथावरसंजमा होति ॥ (व्यभा ३२४३-३२४६) साध्वी गीतार्थ हो या अगीतार्थ, वृद्धा हो या अवृद्धा, तीस वर्ष के व्रतपर्याय तक उसके लिए तीन का संग्रह आवश्यक है - आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी । तीस वर्ष के पश्चात् त्रिसंग्रह की भजना है 1 जो साध्वी वय से परिणत है, गीतार्थ है, निर्विकार है, जिसके पास विशाल साध्वीपरिवार है, वह साठ वर्ष तक आचार्य और उपाध्याय अथवा आचार्य और प्रवर्तिनीइन दो की निश्रा में रह सकती है । साठ वर्ष के पश्चात् प्रवर्तिनी या अन्य स्थविरा साध्वी आचार्य की निश्रा के बिना रह सकती है। आचार्य के कालगत Jain Education International आचार्य हो जाने पर अथवा उनके अवसन्न (गणत्याग कर शिथिलाचारी) हो जाने पर साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी पूर्वदिक् (पूर्व आचार्य - प्रदत्त पद) धारण कर सकती है। साध्वी बहुप्रत्यपाया होती है (उसकी साधना में बहुत विघ्न संभव हैं) । संग्रह (आचार्य आदि की निश्रा) के बिना वह पराभव को प्राप्त होती है। जो निश्रा में रहती है, वह अत्यन्त स्थिर संयम वाली होती है। १८. आचार्य - उपाध्याय के अतिशेष आयरिय-उवज्झायस्स गणंसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए ' निगिज्झिय - निगिज्झिय' पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छाए करेज्जा इच्छाए नो करेज्जा | आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स गाणि एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णातिक्कमति । आयरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगाणिए एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णातिक्कमति । (व्य ६ / २) गण में आचार्य तथा उपाध्याय के पांच अतिशेष (विशेष विधियां) होते हैं १. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में पैरों की धूलि को यतापूर्वक झाड़ते हुए, प्रमार्जित करते हुए, आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । २. उपाश्रय में उच्चार - प्रश्रवण का व्युत्सर्ग और विशोधन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । ३. उनकी इच्छा पर निर्भर है कि वे किसी साधु की सेवा करें या न करें। ४. वे उपाश्रय में एक रात या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ५. वे उपाश्रय से बाहर एक रात या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । ( व्यवहार के छठे उद्देशक के भाष्य में इन विधियों अतिक्रमण से उत्पन्न होने वाले दोषों का विस्तृत विवेचन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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