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________________ आचार्य ७४ आगम विषय कोश-२ (बुरे-अच्छे) बिलों को जानता हूं, जिन्हें तुम नहीं जानती। निदान किए बिना ही इस श्लोक के माध्यम से कालानुपाती अतः तुम खेद का अनुभव मत करो। वमन, विरेचन तथा विशोषण-तीनों क्रियाएं एक साथ कीं। पूंछ ने कहा-तुम तो ज्ञानी रहो, मैं तो अज्ञानी ही रह राजकुमार मर गया। जाऊंगी। आज तो तुम अग्रगामी बनो, लो, यह मैं इस हल से १५. अगीतार्थ की आचार्य पद पर स्थापना से प्रायश्चित्त लिपट कर यहीं रहूंगी। तुम तो जाओ, शीघ्र जाओ। गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो।" सिर ने कहा-मूर्खे! तुम मेरे से आगे हो जाओ। __ (व्यभा १३३५) अज्ञानी के साथ विरोध करने से क्या लाभ? अज्ञे! मेरे इस जो गण द्वारा असम्मत अप्रीतिकर साधु को अपनी वंश का विनाश देखकर भी आगे जाती हो तो जाओ, तुम इच्छानुसार आचार्य पद पर स्थापित करता है, वह प्रायश्चित्त भी विनष्ट हो जाओगी। का भागी होता है। पूंछ ने कहा-जो शक्तिहीन होते हैं. वे ही बटिको बलशाली मानते हैं। बुद्धि शक्तिसम्पन्न का क्या बिगाड़ अबहुस्सुए अगीयत्थे निसिरए वा विधारए व गणं।" सकती है? क्या तुमने यह कहावत नहीं सुनी-वीरभोज्या ......"मासा चत्तारि भारिया॥ वसुंधरा। (बृभा ७०३) सिर के वचन को अमान्य करती हुई पूंछ स्वच्छन्दता जो आचार्य अबह श्रुत-अगीतार्थ साधु को गण का से अग्रगामिनी बन गई। महतमात्र चली होगी कि नेत्रविहीन भार सौंपते हैं और अबह श्रत-अगीतार्थ उसे धारण करता है होने से गाड़ी से आक्रान्त होकर विनष्ट हो गई। तो वे दोनों चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। • वैद्यपुत्र का दृष्टांत १६. आचार्य आदि की निश्रा : द्विसंगृहीत-त्रिसंगृहीत वेज्जस्स एगस्सअहेसिपुत्तो, मतम्मि तातेअणधीयविज्जो। निग्गंथस्स णं नवडहरतरुणस्स आयरिय-उवज्झाए गंतुं विदेसं अह सो सिलोगं, घेत्तूणमेगं सगदेसमेति॥ वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायस्स होत्तए। अहाऽऽगतोसो उसयम्मि देसे, लद्भूणतंचेवपुराणवित्तिं। कप्पइ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता, तओपच्छा उवज्झायं। रण्णोणियोगेण सुते तिगिच्छं, कुव्वंतु तेणेव समं विणट्ठो॥ सेकिमाहभंते!? दुसंगहिए समणेनिग्गंथे, तंजहा-आयरिएणं . (बृभा ३२५९, ३२६०) उवज्झाएणं य॥ राजवैद्य की मत्य के पश्चात राजा ने वैद्यपत्र की "तिसंगहिया समणी निग्गंथी, तं जहा-आयरिएणं वृत्ति का निषेध कर दिया। वह वैद्यकशास्त्रवेत्ता नहीं था, उवज्झाएणं पवत्तिणीए य॥ (व्य ३/११, १२) अतः वह विदेश गया। एक वैद्य के पास रहा और वैद्य के शैक्ष (नवदीक्षित और बाल) व तरुण मुनि का मुख से एक पद्य सुना आचार्य-उपाध्याय दिवंगत हो जाए तो वह आचार्य-उपाध्याय पर्वाहे वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम्। के बिना नहीं रह सकता। वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम्॥ उसके लिए पहले आचार्य और बाद में उपाध्याय की रोगी को पूर्वाह्न में वमन तथा अपराह्न में विरेचन कराना स्थापना करनी चाहिए। चाहिए। वातिक रोगों में भी विशोषण पथ्य होता है। भंते! ऐसा क्यों? उसने सोचा-वैद्यकशास्त्र का यही सार है। वह अपने श्रमण निर्ग्रन्थ द्विसंगहीत-आचार्य और उपाध्याय के आदेशआपको कुशल वैद्य मानने लगा और स्वदेश लौट आया। राजा निर्देश में रहने वाला होता है। ने पन: वत्ति देना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन राजा की आज्ञा से साध्वी त्रिसंगहीत-आचार्य. उपाध्याय और प्रवर्तनी वैद्यकपत्र राजपुत्र की चिकित्सा में प्रवृत्त हुआ। उसने रोग का के आदेश-निर्देश में रहने वाली होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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