SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य ७६ है, जिसका सारांश इस प्रकार है १. यतनापूर्वक प्रमार्जन न करने से चरणधूलि तपस्वी आदि पर गिरने से वह कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकता है। २. आचार्य शौचकर्म के लिए एक बार बाहर जाएं। बार-बार बाहर जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं - जिस रास्ते से आचार्य जाते हैं, उस रास्ते में स्थित व्यापारी लोग आचार्य आदि को देखकर उठते हैं, वन्दन करते हैं। यह देखकर दूसरे लोगों के मन में भी उनके प्रति पूजा- आदर के भाव उत्पन्न होते हैं, किन्तु बार-बार जाने से वे लोग उन्हें देखते हुए भी नहीं देखने वालों की तरह मुंह मोड़कर वैसे ही बैठे रहते हैं । यह देखकर अन्य लोगों के मन में भी विचिकित्सा उत्पन्न होती है और वे भी पूजा - सत्कार करना छोड़ देते हैं। सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है । उपाश्रय में समागत ऋद्धिमान् व्यक्ति धर्मश्रवण और व्रतग्रहण से वंचित रह सकते हैं। ३. तीसरा अतिशेष - सेवा की ऐच्छिकता - आचार्य का कार्य है कि वे अर्थ, मंत्र, विद्या, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन करें सूत्र, तथा उनका गण में प्रवर्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में व्याघात आ सकता है। ४, ५. मंत्र, विद्या आदि के परावर्तन अथवा विशिष्ट ध्यानसाधना लिए आचार्य अकेले रह सकते हैं। छेदसूत्र, योनिप्राभृत आदि रहस्यसूत्रों के गुणन - परावर्तन के लिए एकान्त स्थान अपेक्षित है, अन्यथा अपरिणामक और अतिपरिणामक अगीतार्थ शिष्य रहस्यों को सुनकर अनर्थ कर सकते हैं। अयोग्य व्यक्ति मंत्र आदि को सुनकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। जनसंकुल स्थान में विशिष्ट ध्यान साधना में व्याक्षेप हो सकता है।) ० अतिशेष के हेतु तित्थगरपवयणे निज्जरा य सावेक्ख भत्तवुच्छेदो । एतेहि कारणेहिं, अतिसेसा होंति आयरिए ॥ (व्यभा २५६८) आचार्यों के ये अतिशेष इसलिए होते हैं कि• वे तीर्थंकर के प्रतिनिधि/संदेशवाहक होते हैं। • वे सूत्र और अर्थरूप प्रवचन के दायक होते हैं। • उनका वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है। Jain Education International वे सापेक्षता के सूत्रधार होते हैं। ० • वे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति में हेतुभूत होते हैं । ० आगम विषय कोश - २ एकाकी रहने के हेतु : विद्यापरावर्तन महाप्राणध्यान विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देंति आयरिया | मासद्धमासियाणं पव्वं पुण होति मज्झं तु ॥ पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । अण्णं वि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥ चाउद्दसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं । वत्तं तु अणज्जंते, होति दुरायं तिरायं वा ॥ वा सद्देण चिरं पी, महपाणादीसु सो उ अच्छेज्जा । ओयविए भरहम्मी, जहराया चक्कवट्टी वा ॥ (व्यभा २६९७ - २७०० ) प्राचीन काल में आचार्य पर्व के दिनों में विद्याओं का परावर्तन करते थे । मास और अर्धमास की मध्य तिथियां पर्व कहलाती हैं। जैसे पक्ष की मध्य तिथि अष्टमी, मास की मध्य तिथि चतुर्दशी । (विद्यासाधना प्रायः कृष्ण पक्ष में होती है ।) चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी पर्व के दिन हैं। इन दिनों में विद्या साधी जाती है। अतः आचार्य को एक अहोरात्र अकेले रहना पड़ता है। अथवा कृष्णा चतुर्दशी अमुक विद्या साधने का दिन है और शुक्ला प्रतिपदा अमुक विद्या साधने का दिन है, तब आचार्य दो या तीन दिन-रात तक अकेले अज्ञात में रहते हैं । वे महाप्राण आदि ध्यान की साधना करते समय अधिक काल तक भी अकेले रह सकते हैं। जब तक विशिष्ट लाभ न मिले (अवधिज्ञान आदि की प्राप्ति न हो), तब तक महाप्राणध्यान किया जाता है। जैसे चक्रवर्ती सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को और वासुदेव अर्धभरत को साधे बिना नहीं लौटते, वैसे ही साधक महाप्राणध्यान सिद्ध न होने तक साधना में ही रत रहते हैं । • एक शिष्य के साथ विहार क्यों ? कम्प आयरिय-उवज्झायस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हासु चारए ।। कप्पड़ आयरिय-उवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए । (व्य ४/२, ६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy