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________________ श्रमण ६२२ श्रमण की अवहेलना के परिणाम जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो । प्रवेश कर जाता है वैसे ही जो आहार का स्वाद तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसागरो॥ लिए बिना उसको निगल जाता है। (उ १९।३५-४२) ० जो गिरि की भांति निश्चल होता है. शील में राजकूमार मृगापूत्र ने माता-पिता से जब प्रव्रज्या अडोल होता है। की अनुमति मांगी तब उन्होंने श्रामण्य की दुश्चरता ० जो अग्नि की भांति तेजस्वी होता है। बताते हुए कहा-पुत्र ! श्रामण्य में जीवन पर्यन्त विश्राम ० जो सागर की भांति गंभीर-ज्ञान-दर्शन तथा नहीं है । यह गुणों का महान् भार है। भारी भरकम __चारित्र में निपुण होता है। लोह-भार की भांति इसे उठाना बहुत ही कठिन है। ० जो गमन की भांति निरालंब होता है। आकाश गंगा के स्रोत, प्रति-स्रोत और भुजाओं से ० जो तरु की भांति सम होता है, छेदन-भेदन में सागर को तैरना जैसे कठिन कार्य है वैसे ही गुणोदधिसंयम को तैरना कठिन कार्य है। सम रहता है। ० जो भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति होता है। संयम बाल के कोर की तरह स्वाद-रहित है । तप ० जो मृग की भांति संसारभय से उद्विग्न होता है। का आचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा ० जो पृथ्वी की भांति सर्वसह होता है। पुत्र ! सांप जैसे एकानदृष्टि से चलता है, वैसे ० जो कमल की भांति निरुपलेप होता है। एकाग्रदृष्टि से चारित्र का पालन करना बहुत ही कठिन • जो सूर्य की भांति स्व-पर प्रकाशी होता है। कार्य है । लोहे के यवों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही ० जो वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी होता है। चारित्र का पालन करना कठिन है। ० जो विष की भांति सर्वरसानुपाती होता है। जैसे प्रज्वलित अग्नि-शिखा को पीना बहुत ही कठिन ० जो तिनिस वृक्ष की भांति नमनशील होता है। कार्य है वैसे ही यौवन में श्रमण धर्म का पालन करना • जो वंजुल वृक्ष की भांति विष का उपशमन करने कठिन है। वाला होता है। जैसे वस्त्र के थैले को हवा से भरना कठिन • जो कणवीर की भांति स्पष्ट होता है। कार्य है वैसे ही सत्वहीन व्यक्ति के लिए श्रमणधर्म का • जो उत्पल की भांति शील सौरभ से युक्त होता पालन करना कठिन कार्य है। जैसे मेरु पर्वत को तराजू से तोलना बहुत ही कठिन • जो भ्रमर की भांति अनुपरोध वृत्ति वाला होता कार्य है वैसे ही निश्चल और निर्भय भाव से श्रमण-धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है। • जो उंदुर की भांति देश-कालचारी होता है। जैसे समुद्र को भुजाओं से तैरना बहत ही कठिन • जो नट की भांति विविध रूप वाला होता है। कार्य है, वैसे ही उपशमहीन व्यक्ति के लिए दमरूपी समुद्र ० जो कुक्कुट की भांति संविभागी होता है। को तैरना बहुत ही कठिन कार्य है। ० जो आदर्श (कांच) की भांति स्पष्ट होता है। १०. श्रमण : उरग, गिरि आदि उपमाएं (दअचू पृ ३६,३७) उरग गिरि जलण सागर गगण तरुगणसमो य जो होइ। भमर मिग धरणि जलरुह रवि पवणसमो यतो समणो॥ ११. श्रमण की अवहलना के परिणाम विस तिणिस वाउ बंजुल कणवीरुप्पलसमेण समणेण । गिरि नहेहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह । भमरुंदुर णड कुक्कुड अदागसमेण भवितव्वं ॥ जायतेयं पाएहि हणह, जे भिक्खं अवमन्नह ।। (दनि ६३,६४) आसीविसो उग्गतवो महेसी ० जो सर्प की भांति एकाग्रदृष्टि होता है, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। जो सर्प की भांति परकृत-आवास में रहता है अगणि व पक्खंद पयंगसेणा तथा जैसे सर्प बिल का स्पर्श किए बिना उसमें जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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