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________________ श्रमण श्रामण्य की दुश्चरता पुढवितसे तसरहिए निरंतरतसेम् पूढविए चेव । तट पर आने के बाद एक पैर को जल में दूसरे पर आउवणस्सइकाए वणेण नियमा वणं उदए ॥ को आकाश में-ऊपर उठाकर रखे। तेऊवाउविहूणा एवं सेसावि सव्वसंजोगा। जब पानी भर जाये तब उसे सूखी भूमि पर रखे। नच्चा विराहणदुगं वज्जतो जयसु उवउत्तो ॥ दूसरे पैर को रखने की भी यही विधि है फिर वह तीर (ओनि ४३-४५) पर कायोत्सर्ग करे। यात्रापथ में यदि दो मार्ग हैं—जलमार्ग और सचित्त नवि पूरओ नवि मग्गओ मज्झे उस्सग्ग पण्णवीसाउ। पृथ्वीमार्ग तो मुनि को पृथ्वीमार्ग से जाना चाहिए, जल- दइउदयं तुंबेसु अ एस विही होई संतरणे ॥ मार्ग से नहीं, क्योंकि जल में त्रस और वनस्पति- ये (ओनि ३८) दोनों प्रकार के जीव होते हैं। सचित्त पृथ्वी-मार्ग और नौका के तट पर पहुंच जाने पर मुनि सबसे पहले न वनस्पतिमार्ग की युगपत् प्राप्ति होने पर पृथ्वी के मार्ग से उतरे। सब यात्रियों के उतर जाने के बाद न उतरे, जाना चाहिए। सचित्त पृथ्वीमार्ग और त्रसजीवों से। किन्तु कुछेक यात्रियों के उतर जाने पर मुनि नौका से निरंतर संकूल मार्ग की प्राप्ति होने पर पृथ्वी के मार्ग से उतर जाए । फिर तट पर खड़ा रहकर पच्चीस श्वासोच्छगमन करना चाहिए। वास का कायोत्सर्ग करे । दृति (मशक), छोटी नौका जल और वनस्पति के मार्ग की युगपत् प्राप्ति होने पर वनस्पति के मार्ग से जाना चाहिये, जलमार्ग से नहीं, तथा तुंबे से जल-तरण की भी यही विधि है। क्योंकि जल में वनस्पति की नियमा है। अणिएयवासो समुयाणचरिया अन्नायउंछं पइरिक्कया य । तेजस्काय और वायुकाय को छोड़कर शेष सबके साथ सब काय का संयोग हो सकता है। अत: मुनि को आत्म अप्पोवही कलहविवज्जणा य विराधना और संयम विराधना से रहित मार्ग से गमन में विहारचरिया इसिणं पसत्था । (दचूला २।५) उपयुक्त होकर गमन करना चाहिए। अनिकेतवास (गृहवास का त्याग), समुदानचर्या जल-संतरण विधि (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा असइ गिहि नालियाए आणक्खेउं पूणोऽवि पडियरणं ।। लेना, एकान्तवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का एगाभोग पडिग्गह केइ सव्वाणि न य पुरओ॥ वर्जन-यह विहार-चर्या (जीवन-चर्या) ऋषियों के लिए (ओनि ३६) प्रशस्त है। गहस्थ के अभाव में मुनि स्वयं नालिका (अपने शरीर-प्रमाण से चार अंगुल बड़ी यष्टि) के द्वारा नदी के ६. श्रामण्य की दुश्चरता जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरो। जल का मापन करता है और अपने उपकरणों के पास लौट आता है । फिर वह अपने उपकरणों को और सभी गुरुओ लोहभारो व्व, जो पुत्ता ! होइ दुव्वहो ।। पात्रों को बांधता है। यह नदी-संतरण की सामान्य विधि आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोओ ब्व दुत्तरो। है। यदि नदी को नोका से पार करना है तो मुनि नौका बाहाहि सागरो चेव, तरियव्वो गुणोयही ॥ वालुयाकवले चेव, निरस्साए उ में पहले न चढ़े । कुछ यात्रियों के चढ़ने के बाद चढ़े। संजमे। सागारं संवरणं ठाणतिरं परिहरित्तुऽनाबाहे। असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो । ठाइ नमोक्कारपरो तीरे जयणा इमा होइ ।। अहीवेगंतदिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे । (ओनि ३७) जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्करं ।। मुनि नौका आरोहण के समय प्रत्याख्यान (सागारी जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं । अनशन) करता है । नौका में आगे, पीछे या मध्य में तह दुक्करं करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं ।। नहीं बैठता, एक पाश्वं में अप्रमत्त हो बैठता है और जहा दुक्खं भरेउं जे, होइ वायस्स कोत्थलो। नमस्कार महामंत्र के जप में लीन हो जाता है। तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं ।। एगो जले थलेगो निप्पगले तीरमुस्सग्गो ।" जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मंदरो गिरी। (ओभा ३४) तहा निहुयं नीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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