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________________ श्रमण ६२० विहारविधि : नौकल्पी विहार १२॥ ८. विहारविधि : नौकल्पी विहार साथ, अन्यथा अकेला ही विहार करे। अन्य सांभोजिक संवच्छरं चावि परं पमाणं, ग्लान की परिचर्या की विधि यह है कि परिचारक दूसरी बीयं च वास न तहिं वसेज्जा। . वसति में रहकर परिचर्या करे । सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू, विहार करने के कारण सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ।। चक्के थभे पडिमा जम्मण निक्खमण नाण निव्वाणे। संबच्छर इति कालपरिमाणं, तं पुण णेह बारसमा- संखडि विहार आहार उवहि तह सणढाए॥ सिगं संबज्झति किंतु वरिसारत्तचातुम्मासितं । स एव एते अकारणा संजयस्स असमत्त तदुभयस्स भवे । जेट्टोग्गहो। ते चेव कारणा पुण गीयत्थविहारिणो भणिआ ॥ .."बितियं च वासं--बितियं ततो अणंतरं, च सद्देण (ओनि ११९,१२०) ततियमवि, जतो भणितं-'तं दुगुणं दुगुणेणं, अपरिहरित्ता गीतार्थ के विहार के हेत ण वट्टति ।' (दचूला २।११ अचू पृ २६७) धर्मचक्र, स्तूप, प्रतिमा, अर्हतों की जन्मभूमि, जिस गांव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह दीक्षाभूमि, केवलज्ञानभूमि, निर्वाणभूमि को देखने चुका हो अर्थात् वर्षाकाल में चातुर्मास और शेष काल में । के लिए। एक मास रह चका हो, वहां दो वर्ष (दो चातुर्मास और ० संखडी प्रकरण के लिए। दो मास) का अन्तर किए बिना न रहे । भिक्षु सूत्रोक्त ० विहार के लिए (स्थान-परिवर्तन हेतु) मार्ग से चले, सूत्र का अर्थ जैसी आज्ञा दे, वैसे चले । ० अनुकूल भोजन और उपधि की प्राप्ति के लिए मुनि के लिए नौकल्पी विहार का विधान है- ० दर्शनीय स्थलों को देखने के लिएचातुर्मासिक वर्षावास का एक कल्प, शेष आठ मास के जो गीतार्थ है, उसके लिए ये विहार के हेतु हैं। आठ कल्प। लेकिन जो अगीतार्थ है, उसके लिए ये कारण नहीं निक्ख विउं किइकम्म दीवणऽणाबाह पुच्छणा सहाओ। हैं-उसे इन कारणों से विहार नहीं करना गेलण्ण विसज्जणया अविसज्जुवएस दावणया ।। चाहिए। (ओनि ६८) विहार के अधिकारी यात्रा करता हुआ मुनि जब अपने सांभोजिक साधुओं गीयत्थो य विहारो बिइओ गीयत्थमीसिओ भणिओ। से मिले तब सबसे पहले अपने पात्र आदि सांभोगिक के एत्तो तइय विहारो नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ।। हाथ में देकर रत्नाधिक को बन्दना करे । संजमआयविराहण नाणे तह दंसणे चरित्ते अ । ० आने का उद्देश्य स्पष्ट करे। आणालोव जिणाणं कुव्वइ दीहं तु संसारं ॥ ० दोनों परस्पर सुखपृच्छा करें। (ओनि १२१,१२२) • विहार करे तो वहां स्थित मुनि पहुंचाने जाएं। दो विहार अनुज्ञात हैं --- ० यदि वहां ग्लान हो तो अपने को सेवा के लिए १. गीतार्थ साधु (बहुश्रुत, सूत्र-अर्थ का ज्ञाता)। प्रस्तुत करे। २. गीतार्थ के साथ अन्य साधु । ० ग्लान के लिए औषध आदि की संयोजना करने तीसरा विहार अर्हतों द्वारा प्रज्ञप्त नहीं है। वाला न हो तो स्वयं उसकी संयोजना करे और स्वयं गीतार्थ या गीतार्थ की निश्रा में इन दो के उसकी विधि बतलाकर विहार करे। अतिरिक्त अगीतार्थ अकेला विहार करने वाला मुनि पढमावियारजोगं नाउं गच्छे बिइज्जए दिण्णे। आत्मविराधना, संयमविराधना और ज्ञान, दर्शन, चारित्र एमेव अण्णसंभोइयाण अण्णाइ वसहीए । की विराधना करता है। वह भगवान् की आज्ञा का लोप (ओनि ७१) करता है और अपने भव-भ्रमण को दीर्घ करता है। ग्लान मुनि अपने लिए प्रातराश लाने तथा उत्सर्ग- गमन-मार्ग का निर्धारण भूमि जाने में समर्थ हो जाए-यह जानकर परिचारक पुढविदए य पुढविए उदए पुढवितस बालकंटा य। मुनि वहां से विहार करे, दूसरा सहायक हो तो उसके पुढविवणस्सइकाए ते चेव उ पुढविए कमणं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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