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________________ शय्या-अतिचार-प्रतिक्रमण श्रमण पकामणिकामं रत्ति दिवा य सुयन्तस्स। (दअचू पृ ९२) संस्तारक बिछाने और पात्र रखने में बीस अंगुल का अयतनापूर्वक सोने वाला अस और स्थावर जीवों की अन्तर अवश्य होना चाहिए। हिंसा करता है। उससे पाप कर्म का बंध होता है । वह दो हत्था य अबाहा नियमा साहुस्स साहूओ। उसके लिए कटु फल वाला होता है। (ओनि २२७) अयतना या असंयम से सोने का अर्थ है--प्रतिलेखन सोते समय एक साधु दूसरे साधु से सटकर न सोये प्रमार्जन किये बिना हाथ-पैर आदि का संकोच-विकोच -कम से कम दो हाथ की दूरी रहे । करना । प्रकामशय्या-निकामशय्या करना, बिना प्रयोजन संस्तारक भूमि दिन-रात में बार-बार सोना। जयणं कुव्वंतो कुम्मो इव गुत्तिदिओनिद्दामोक्खं संथारगभूमितिगं आयरियाणं तु सेसगाणेगा। करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलेहिय पमज्जिय रुंदाए पुप्फइन्ना मंडलिआ आवली इयरे ।। करेज्जा। (दजिचू पृ १६०) (ओनि २०२) यतं स्वपेत् – समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादि आचार्य के तीन संस्तारक भूमियां होती हैं ..... परिहारेण । (दहाव प १५७ १. निवात २. प्रवात ३. निवात-प्रवात । संयमपूर्वक सोने का अर्थ है-कर्म की भांति मुनि के लिए एक संस्तारक भूमि होती है। गुप्तेन्द्रिय हो सोना । करवट बदलते समय, हाथ-पैर संस्तारक भूमि यदि विस्तीर्ण हो तो बिखरे हुए फैलाते समय शय्या का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना। पुष्पों की तरह शयन करे। वसति यदि छोटी हो तो समाहितचित्त हो रात्रि में प्रकाम शय्या आदि का मध्य में पात्र आदि रखकर मण्डली के पावं में शयन परिहार करना। करे । यदि वसति प्रमाणयुक्त हो तो पंक्तिबद्ध शयन करे। अद्धाणपरिस्संतो गिलाणवुड्ढा अणुण्णवेत्ताणं ।' (ओभा १५६) शय्या-अतिचार-प्रतिक्रमण जो मुनि विहार से परिश्रांत हो गया हो, वृद्ध हो, इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसेज्जाए निगामसेज्जाए रोगी हो, वह मूनि आचार्य से आज्ञा लेकर दिन में भी उव्वट्टणाए परिवट्टणाए आउंटणाए पसारणाए छप्पइयसो सकता है, अन्यथा नहीं। संघट्टणाए कूइए कक्कराइए छीए जंभाइए आमोसे ससर(नींद लेने का उपयुक्तकाल रात है। यदि रात में क्खामोसे, आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्थीविप्परिपूरी नींद न आए तो प्रात:काल भोजन से पूर्व सोए। यासिआए दिट्ठिविप्परियासिआए मणविप्परियासिआर रात में जागने से रूक्षता और दिन में सोने से स्निग्धता पाणभोयणविप्परियासिआए, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । पैदा होती है । परन्तु दिन में बैठे-बैठे नींद लेना न रूक्षता (आव ४।५) पैदा करता है और न स्निग्धता । यह स्वास्थ्य के लिए मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूं-अतिमात्र नींद लेने लाभप्रद है। में, जब इच्छा हई तब नींद लेने में या बार-बार नींद यथाकालमतो निद्रां, रात्रौ सेवेत सात्मतः । लेने में, उठने-बैठने में, करवट लेने में, शरीर को असात्म्याद् जागरादधं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् । सिकोड़ने-फैलाने में, जं को इधर-उधर करने में, नींद में रात्री जागरणं रूक्षं, स्निग्धं प्रस्वप्नं दिवा । बोलने और दांत पीसने में, छींक और जम्हाई लेने में, अरूक्षमनभिस्यन्दि, वासीनप्रचलायितम् ॥ किसी का स्पर्श करने में तथा सचित्तरजयुक्त वस्तु का -अष्टांगहृदय ७।५५,६५) स्पर्श करने में अतिचार किया हो, स्वप्नहेतुक आकुलतम्हा पमाणजुत्ता एक्केक्कस्स उ तिहत्थसंथारो। व्याकुलता, स्त्रीविषयक कामराग, दृष्टि राग, मनोराग भायणसंथारंतर जह वीसं अंगुला हुंति ॥ और खाने-पीने के वियष में अन्यथा भाव किया हो तो (ओनि २२६) उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो। एक साधु के संस्तारक का प्रमाण है तीन हाथ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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