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________________ भ्रमण ६१४ श्रमण कौन ? श्रमण-साधु, मुनि, निग्रंथ । १ श्रमण कौन ? २. श्रमण (अनगार) के सत्ताईस गुण ३. श्रमण की पृष्ठभूमि ४. श्रमण के एकार्थक * श्रमण के प्रकार (द्र. पाषंड) ५. प्रमत्त श्रमण ० अप्रमत्त श्रमण ६. श्रमण की दिनचर्या ० स्वाध्याय-क्रम * स्वाध्याय-काल (द्र. काल विज्ञान) * प्रतिलेखनाविधि (द. प्रतिलेखना) * भिक्षाविधि (द्र. गोचरचर्या) * भिक्षा के दोष (द्र. एषणा) * आहारविधि (द्र. आहार) ७. शयन विधि ० संस्तारक भूमि ० शय्या-अतिचार प्रतिक्रमण ८. विहार विधि : नौकल्पी विहार ० विहार करने के कारण ० विहार का अधिकारी ० गमन-मार्ग का निर्धारण • जल संतरण विधि ९. श्रामण्य की दुश्चरता १०. श्रमण : उरग, गिरि आदि उपमाएं ११. श्रमण की अवहेलना के परिणाम * श्रमण का आचार, प्रतिक्रमण, महावत, संयम, समिति, गप्ति, परीषह, प्रत्याख्यान, गणस्थान (द्र. संबद्धनाम) * चारित्र के अठारह हजार अंग (द्र. चारित्र) * चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन (द्र. चारित्र) * श्रमण और श्रावक में अन्तर (द्र.श्रावक) * श्रमण धर्म (द्र. धर्म) * भिक्षुप्रतिमा (. प्रतिमा) नस्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अ.नो वि पज्जाओ ।। .."तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो. समो य माणावमाणेसु ।। (अनु ७०८) • जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, यह जानकर जो किसी प्राणी की घात न करता है और न करवाता है। इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह समण कहलाता है। ० सब जीवों में कोई उसका अप्रिय और प्रिय नहीं है। . सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन (समना) कहलाता है। • जो सु-मन-श्रेष्ठ मन वाला होता है, भाव से पाप-मन वाला नहीं होता, स्व जन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है, वह श्रमण कहलाता है । रागडोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला य । विगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ।। एयाइं तु खुहाई जे खलु भिदंति सुव्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी उविति अयरामरं ठाणं ।। (उनि ३७८,३७९) श्रमण वह है० जो राग-द्वेष को जीत लेता है। • जो मन, वचन और काया-इन तीनों दण्डों में सावधान रहता है । ० जो न सावध कार्य करता है, न दूसरों से करवाता है और न उसका अनुमोद। करता है। . ० जो ऋद्धि, रस और साता का गौरव नहीं करता। ० जो मायावी नहीं होता, जो निदान नहीं करता __ और जो सम्यग्दर्शी होता है। ० जो विकथाओं से दूर रहता है । ० जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं को जीत लेता है। • जो कषायों पर विजय पा लेता है। • जो प्रमाद से दूर रहता है। जो कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। जो ऐसा होता है, वह समस्त ग्रन्थियों का छेदन कर अजर-अमर पद को पा लेता है। १. श्रमण कौन ? समयाए समणो होइ । (उ २५।३०) 'जो समभाव की साधना करता है, वह श्रमण है। जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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