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________________ अविनय का परिणाम .६१३ शिष्य ६. अविनीत शिष्य का स्वभाव छिनाल वृषभ रास को छिन्न-भिन्न कर देता है, इड्ढीगारविए एगे, एगेत्थ रसगारवे । दुर्दान्त होकर जुए को तोड़ देता है और सों-सों कर वाहन सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥ को छोड़कर भाग जाता है। भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए थद्धे । जुते हए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते एगं च अणुसासंमि, हेऊहिं कारणेहि य ।। सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुव्वई । हैं, वैसे ही दुर्बल धति वाले शिष्यों को धर्मयान में जोत आयरियाणं तं वयणं, पडिकलेइ अभिक्खणं ।। दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर डालते हैं। न या ममं वियाणाइ, न वि सा मज्झ दाहिइ । दंसमसगस्समाणा जलयकविच्छयसमा य जे हुंति । निग्गया होहिई मन्ने, साहु अन्नोत्थ वच्चउ ।। ते किर होंति खलुका तिक्खम्मिउचंडमद्दविया ।। पेसिया पलिउंचंति, ते परियंति समंतओ।' (उनि ४९२) रायवेट्रि व मन्नंता, करेंति भिडिं महे ॥ अविनीत शिष्य खलंक जैसा होता है। वह दंश (उ २७९-१३) मशक की तरह कष्ट देने वाला, जलोक की तरह गुरु के कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव करता है तो कोई रस दोष ग्रहण करने वाला, वृश्चिक की तरह वचन-कण्टकों का गौरव करता है, कोई साता-सुखों का गौरव करता से बींधने वाला, असहिष्णु, आलसी और गुरु के कथन है तो कोई चिरकाल तक क्रोध रखने वाला है। को न मानने वाला होता है। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है तो कोई अप ११. अविनय का परिणाम मानभीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते हैं तब वह बीच में ही जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो । बोल उठता है, मन में द्वेष ही प्रकट करता है तथा एवं दुस्सील-पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्ज इ ।। बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण करता कणकुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठ भुजइ सूयरे । एवं सील चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ।। (गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका से कोई वस्तु लाने (उ ११४,५) को कहे तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूं, वह घर से बाहर गई निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन होगी । इस कार्य के लिए मैं ही क्यों ? कोई दूसरा साधु करने वाला और वाचाल शिष्य गण से निकाल दिया चला जाए। किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वे कार्य किए बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-- जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों विष्ठा खाता है, वैसे ही अज्ञानी शिष्य शील को छोडकर ओर घूमते हैं किंतु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी दुःशील में रमण करता है। गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार शीतल-दसवें तीर्थकर। (द्र. तीर्थंकर) की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं -मुंह को मचोट लेते हैं। शीर्षप्रहेलिका-जैन गणित की सबसे बड़ी संख्या, जिसमें ५४ अंक और १४० शून्य होते हैं। १०. अविनीत शिष्य : कुछ उपमाएं (द्र. काल) छिन्नाले छिदइ सेल्लि, दुईतो भंजए जुगं । से वि य सुस्सुयाइत्ता, उज्जाहित्ता पलायए । शुक्ललेश्या-प्रशस्ततम भावधारा तथा उसकी खलुका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा। उत्पत्ति में हेतुभूत श्वेत वर्ण वाले पुद्गल । जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्बला ॥ (द्र. लेश्या) (उ २७१७-८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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