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________________ शिष्य ६१२ अविनीत शिष्य कौन ? (उ ११७-९; ११३) भलीभांति कार्य संपन्न कर लेता है। ८. अविनीत शिष्य कौन ? मेधावी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे अभिक्खणं कोही हवइ, पबंधं च पकुव्वई । क्रियान्वित करते में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक में मेत्तिज्जमाणो वमइ, सूयं लद्धण मज्जई ॥ कीर्ति होती है। जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । आधार होती है, उसी प्रकार वह आचार्यों के लिए सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ।। आधारभूत बन जाता है। पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । उस पर तत्त्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं। असं विभागी अचियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई। अध्ययनकाल से पूर्व ही वे उसके विनय समाचरण से परि आणाऽनिद्देसकरे गुरूणमणववायकारए । चित होते हैं । वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के हेतुभूत विपुल पडिणीए असंबुद्धे अविणीए त्ति वुच्चई ॥ श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। वह पूज्यशास्त्र होता है - उसके शास्त्रीयज्ञान का अविनीत शिष्य के लक्षण ---- बहुत सम्मान होता है । उसके सारे संशय मिट जाते हैं । १. जो बार-बार क्रोध करता है। वह गुरु के मन को भाता है । वह कर्म-संपदा (दसविध २. जो क्रोध को टिकाकर रखता है। सामाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। वह ३. जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठकराता है। तपःसामाचारी और समाधि से संवत होता है । वह पांच ४. जो श्रुत प्राप्त कर मद करता है। महाव्रतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। ५. जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य करता है। मल और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो ६. जो मित्रों पर कुपित होता है। शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पकर्म वाला महद्धिक देव ७. जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकांत में बुराई होता है। करता है। ७. विनीत शिष्य और अश्व ८. जो असंबद्धभाषी है। मा गलियस्से व कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । ९. जो द्रोही है। कसं व दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्जए ॥ १०. जो अभिमानी है। ११. जो सरस आहार आदि में लुब्ध है । जैसे अविनीत घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है, १२. जो अजितेन्द्रिय है। वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन (आदेश, उपदेश) को १३. जो असंविभागी है। बार-बार न चाहे । जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखते १४ जो अप्रीतिकर है। ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु १५. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति छोड़ करता। दे। १६. जो गुरु की शुश्रूषा नहीं करता। रमए पण्डिए सासं, हयं भदं व वाहए । १७ जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है। बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए । १८. जो इंगित तथा आकार को नहीं समझता। (उ १३७) कस्स न होही वेसो अनब्भुवगओ अ निरुवगारी अ। जैसे उत्तम छोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनंद अप्पच्छंदमईओ पट्टिअओ गंतुकामो अ। पाता है, वैसे ही पंडित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन (आवनि १३७) करता हुआ गुरु आनन्द पाता है। जैसे दुष्ट घोड़े को जो श्रुतसम्पदा से सम्पन्न नहीं है, निरुपकारी है, हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही बाल स्वच्छन्द बुद्धि वाला है, संयम से उत्प्रवजित होने वालों (अविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न का साथ देने वाला है, स्वयं उत्प्रव्रजन के लिए समुद्यत होता है। रहता है-वह शिष्य अयोग्य-अप्रीतिकर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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