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________________ अंगबाह्य निरयावलिका व्याख्या का अपर नाम है भगवती । उसकी चूलिका से अत्यंत रुष्ट होकर जब पूरी एकाग्रता से 'उत्थानश्रुत' व्याख्याचूलिका कहलाती 1 वर्गचूलिका अध्ययन का एक, दो या तीन बार परावर्तन करता है, तब वह ग्राम, राजधानी अथवा कुल उजड़ जाता है । समुपस्थानश्रुत से चेव (रु) समणे तस्स गामस्स वा जाव रायधाणी वा समाणे पसण्णे पसण्णलेस्से सुहासणत्ये समुट्ठासुतं परियट्टेइ एक्कं दो तिण्णि वा वारे ताहे से गामे वा जाव रायहाणी वा आवासेति । अप्पणा पुव्वुट्ठियं पिकतसंकष्पस्स आवासेति । ( नन्दीचू पृ ६० ) विवखावसातो अज्झयणादिसमूहो वग्गो, जहा अंत दसाणं अट्ठ बग्गा, अणुत्तरोववातियदसाणं तिण्णि बग्गा, तेसि चूला वग्गचूला । ( नन्दीच पृ. ५९ ) अध्ययन आदि का समूह वर्ग कहलाता है । जैसे--- अन्तकृतदशा के आठ वर्ग हैं, अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग हैं, इन वर्गों की चूला वर्गचूला कहलाती हैं । अरुणोपपात अरु णामं देवे तस्स समयनिबद्धे अभयणे, जाहे तं अज्झयणं उवउत्ते समाणे अणगारे परियट्टेति ताहे से अरुणे देवे समयनिबद्धत्तणतो चलितासणे जेणेव से समणे तेणेव आगच्छत्ता ओवयति, ताहे समणस्स पुरतो अंतद्धिते कतंजली उवउत्ते सुणेमाणे चिट्ठति, समत्ते य भणति - सुभासितं वरेह वरं ति । इहलोगणिप्पिवासे से समणे पभिति - ण मे वरेण अट्ठो त्ति । ताहे से पदाहिणं करेत्ता णमंसित्ता य पडिगच्छति । ( नन्दी पृ ५९ ) अरुण नामक देव की वक्तव्यता का प्रतिपादक अरुणोपपात नामक कालिकश्रुत है । जब अनगार तन्मय होकर उस अध्ययन का परावर्तन करता है, तब उस अरुण देव का आसन कम्पित हो जाता है । उसी समय देव वहां उपस्थित हो जाता है, जहां वह अनगार श्रमण । उस श्रमण के सामने प्रच्छन्न रूप में बद्धांजलि हो वह देव ध्यान से सूत्र सुनता है। उसकी समाप्ति पर कहता है मुने ! आपने अच्छा सुनाया, अब वरदान मांगो। इस लोक से निस्पृह / वितृष्ण श्रमण प्रत्युत्तर में कहता है -- मुझे वरदान नहीं चाहिए। तब देव मुनि को प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर चला जाता है । उत्थानश्रुत उद्वाणसुतं ति अभयणं सिंगणाइयकज्जे जस्स णं गामस्स वा जाव रायहाणीए वा एगकुलस्स वा समणे आसुरुत्ते रुट्ठे उवउत्ते तं उट्ठाणसुते त्ति अज्झयणं परियट्टेति एक्कं दो तिणि वा वारे ताहे से गामे वा जाव राधाणी वा कुलं वा उट्ठेति । उव्वसइतिवृत्तं भवति । ( नन्दीच पृ ६० ) संघ संबंधी कार्य (सुरक्षा, प्रभावना ) उपस्थित होने पर मुनि जिस ग्राम, नगर, राजधानी अथवा कुल Jain Education International १० किसी कारणवश ग्राम, राजधानी अथवा कुल से रुष्ट मुनि पुनः तुष्ट हो, प्रसन्न मुद्रा में, प्रशस्त भावधारा से सुखासन में स्थित हो एकाग्रता से जब एक, दो या तीन बार 'समुपस्थानश्रुत' का परावर्तन करता है, तब वह उजड़ा हुआ गांव, राजधानी अथवा कुल पुनः बस जाता है । अथवा मुनि ने पहले कभी रुष्ट होकर ग्राम, नगर आदि को वीरान कर दिया हो, वह उन्हें इस समुपस्थानश्रुत से आबाद कर सकता है । नागपरिज्ञापनिका नागत्ति नागकुमारे, तेसु समयनिबद्धं अज्झयणं, तं जदा समणे उवयुक्ते परियट्टेति तया अकतसं कप्पस्स वि नागकुमारा तत्थत्था चेव परियाणंति, वंदंति णमंसंति भत्तिबहुमाणं च करेंति । सिंगणाइयकज्जेसु य वरया भवंति । ( नन्दीच पृ ६० ) नाग का अर्थ है – नागकुमार देव । उनकी वक्तव्यता का प्रतिपादक अध्ययन नागपरिज्ञापनिका है । जब श्रमण एकाग्र हो इस अध्ययन का परावर्तन करता है, तब चाहे वह देव को आह्वान करे या न करे, अपने स्थान पर स्थित नागकुमार देव इसे जान लेते हैं । वे वहीं से उस मुनि को वन्दना - नमस्कार करते हैं, भक्तिबहुमान करते हैं । वे संघ आदि के कार्यों के लिए वरदान भी देते हैं । निरयावलका निरावलियासु आवलियपविट्ठेतरे य निरया, तगामिणो य णर- तिरिया पसंगतो वण्णिज्जंति । ( नन्दीचू पृ ६० ) निरयावलिका में प्रविष्ट नारकों और नरकगामी नर- तिर्यञ्चों का जिसमें वर्णन है, वह निरयावलिका सूत्र है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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