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दुःख
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दुःख के हेतु दर्शन -१. सामान्य अवबोध । (द्र. ज्ञान) पास उतना वैभव न होने पर विषाद, च्यवन के समय
२. दृष्टि, तत्त्वरुचि। (द्र. सम्यक्त्व) अतिरमणीय विमान, वापी, स्तूप और देवाङ्गना के दर्शनावरणीय- दर्शन (सामान्य बोध) को आवृत
वियोग का दुःख । देवलोक से अन्यत्र अप्रिय, अनिच्छित
जन्म के दुःख को देखकर तप्त लोहपात्र में रखी मछली करने वाला कर्म । (द्र. कर्म)
से भी अधिक दुःख होता है। दिशा-ताप दिशा, प्रज्ञापक दिशा आदि।
दुःख के हेतु (द्र. लोक)
जावंतविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । दुःख-क्लेश, परिताप।
लुप्पंति बहुसो मूढा संसारंमि अणंतए । चार गति के दुःख
(उ ६।१) ___ नरकगतौ कुन्ताग्रभेदकरपत्रशिरःपाटनशूलारोपकुम्भि- जितने अविद्यावान् पुरुष हैं, वे सब दुःख उत्पन्न करने पाकासिपत्रवनकृतकर्णनासिकादिच्छेदं कदम्बबालुकापथ- वाले हैं। वे दिग्मूढ की भांति मूढ बने हुए इस अनन्त गमनादिरूपमनेक प्रकारं दुःखमेव निरन्तरं, नाक्षिनिमीलन- संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। मात्रमपि तत्र सुखम् ।
जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो। तिर्यग्गतावपि अङ कुशकशाभिघातप्राजनकतोदनवध- मणसा कायवक्केण, सव्वे ते दुक्खसंभवा । बन्धरोगक्षुत्पिपासादिप्रभवमने दुःखम् । मनुष्यगतावपि
(उ ६।११) परप्रेषगुप्तिगृहप्रवेशधनबन्धुवियोगानिष्टसम्प्रयोगरोगादि- जो कोई मन, वचन और काया से शरीर वर्ण और जनितं विविधमनेक दुःखम् । देवगतावपि च परगत- रूप में सर्वश: आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दःख विशिष्टद्युतिविभवदर्शनात् मात्सर्यमात्मनि तद्विहीने उत्पन्न करते हैं। विषादः, च्युतिसमये चातिरमणीयविमानवनवापीस्तूप
"कामभोगाणराएणं केसं संपडिवज्जई ।। देवाङ्गनावियोगजमनिष्टजन्मसंतापं चाऽवेक्षमाणस्य
(उ ५७) तप्तायोभाजननिक्षिप्तशफरादप्यधिकतरं दुःखम् ।
अज्ञानी व्यक्ति काम-भोग के अनुराग से क्लेश को
(नन्दीमवृ ३९) प्राप्त होता है । नरकदुःख-नरक गति में जीव भयंकर दुःखों का वरि विसु भंजिउ मं विसय, एक्कसि विसिण मरंति। संवेदन करता है। वहां जीवों को भालों से भेदा जाता नर विसयामिसमोहिया, बहसो नरइ पडंति ।। है, करवत, आरे आदि से शिर को छेदा जाता है,
(उसुव प १०३) शूली में पिरोया जाता है, विविध कुंभियों में पकाया
विष पीना अच्छा है, विषय नहीं। मनुष्य विष से जाता है, असिपत्रों से कर्ण, नासिका आदि को काटा एक ही बार मरते हैं, किन्तु विषय रूप मांस में मोहित जाता है, कदम्बबालुका नदी की बालू में जलाया जाता मनुष्य अनेक बार मरते हैं, नरक में जाते हैं। है। वहां अक्षिनिमेष जितना भी सुख नहीं है।
अत्थि सुह-दुक्खहेऊ कज्जाओ बीयमंकुरस्सेव । तिर्यंचदुःख-तिर्यच गति में अनेक प्रकार के दुःख सो दिट्रो चेव मई वभिचाराओ न तं जुत्तं ।। हैं। जैसे अंकुश और कश का अभिघात, चाबुक का
जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेऊ । प्रहार, वध, रस्सी आदि से बांधना, रोग, भूख, प्यास कज्जत्तणओ गोयम ! छडोव्व, हेऊ य सो कम्मं । आदि ।
(विभा १६१२,१६१३) मनुष्य दुःख-पराधीनता, कारावास, धन और जैसे अंकुर का हेतु (उपादान कारण) बीज है, वैसे ही परिजनों का वियोग, अनिष्ट का संयोग, रोग सुख-दुःख का हेतु कर्म है । यदि घर, चन्दन आदि को सुख आदि।
का हेतु और सर्प, कंटक आदि को दुःख का हेतु मान लिया देव दुःख - देवगति में भी दुःख है । जैसे-दूसरे जाए तो यह हेतु व्यभिचारी हो जाएगा। क्योंकि सुख देवों की युति और वैभव को देखकर ईर्ष्या, स्वयं के और दुःख के साधन तुल्य होने पर भी सुख-दुःख के
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