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________________ तीर्थंकर नामगोत्र का बंध * तीर्थंकर और समवसरण * तीर्थंकरों की स्तुति १४. तीर्थंकर : एक परिचय १५. ऋषभ नामकरण १६. ऋषभ के पूर्वभव १७. मरुदेवा के स्वप्न १८. ऋषभ का जन्म १९. इक्ष्वाकुवंश, काश्यपगोत्र २०. गृहस्थ पर्याय २१. आदिम युग की सामाजिक व्यवस्था २२. ऋषभ का अभिनिष्क्रमण • प्रथम मिक्षाग्रहण २३. ऋषभ की प्रथमता २४. ऋषभ की शिष्य सम्पदा २५. ऋषभ का प्रमाद काल २६. मरुदेवा प्रथम सिद्ध २७. नमि - विनमि की प्रार्थना २८. तीर्थ का विच्छेव २९. अजित आदि अहंतों का नामकरण अर्हत् अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण शिष्य संपदा o O 0 ३०. महावीर के अभिधान अर्हत् पार्श्व की शिष्य संपवा ३१. महावीर के पूर्व भव ३२. महावीर का गर्भहरण ३३. महावीर का परिवार ३४. महावीर की तपस्या • पांच अभिप्रह • विशिष्ट अवधिज्ञान शूलपाणिपक्षकृत उपसर्ग महावीर के महास्वप्न ३५. महावीर की प्रतिमा साधना ३६. संगमकृत उपसर्ग ३७. कैवल्यप्राप्ति ० ० ३८. महावीर की शिष्य सम्पदा ३९. एक साथ कितने तीर्थंकर ? * तीर्थंकर और चक्रवर्ती Jain Education International ( ब्र. समवसरण ) (व्र. स्तवस्तुति) ( ब्र. चक्रवर्ती) ३०१ १. तीर्थ का प्रवर्तन तित्थं चाउव्वण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णी अ जिणाणं वीरजिणिदस्स बीअंमि ।। ( आवनि २६५ ) तीर्थंकर कैवल्य - प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम चार तीर्थ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका ) की स्थापना करते हैं । ऋषभ आदि तेईस तीर्थंकरों के प्रथम समवसरण में तथा भगवान् महावीर के दूसरे समवसरण में तीर्थ की उत्पत्ति हुई । २. तीर्थंकर नामगोत्र का बंध अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसुं । वच्छल्लया एएसि अभिक्खनाणोवओगे य ॥ दंसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइआरो । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अप्पुव्वाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहि कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ( आवनि १७९ - १८१ ) तीर्थंकर नामगोत्र - बंध के बीस स्थान ---- १ अर्हत्-वत्सलता २. सिद्ध-वत्सलता ११. आवश्यक १२. शीलव्रत विशुद्धि ३. प्रवचन - वत्सलता १३. क्षणलव (संवेग भावना और ध्यान का सतत अभ्यास ) ४ गुरु-वत्सलता ५. स्थविर - वत्सलता तीर्थंकर १४. तप १५. त्याग ( साधु को प्रासुक एषणीय दान) ६. बहुश्रुत-वत्सलता ७. तपस्वी - वत्सलता ८. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ९. दर्शन - विशुद्धि १०. विनय २०. प्रवचन - प्रभावना । नियमा मनुयईए इत्थी पुरिसेयरो य सुहलेसो । बहु वीसा ए एहि || ( आवनि १८४ ) इस कर्मबन्ध में निमित्त बनते हैं - अर्हत्भक्ति आदि बीस स्थान | यह बंध मनुष्य गति में, शुभलेश्या में होता । स्त्री, पुरुष, नपुंसक - कोई भी इसका बंध कर सकता है। १६. वैयावृत्त्य १७. समाधि १८. अपूर्वज्ञान ग्रहण १९. श्रुत-भक्ति पुरिमेण पच्छिमेण य एए For Private & Personal Use Only सव्वेऽवि फासिया ठाणा । महिं जिणेहिं एक्कं दो तिणि सव्वे वा ॥ ( आवनि १५२ ) www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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