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________________ तीर्थंकर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने इन सभी स्थानों का स्पर्श किया । मध्यम बाईस तीर्थंकरों ने इनमें से एक, दो, तीन अथवा सब स्थानों का आसेवन किया । तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहि । इ तं तु भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं ॥ तस्य ह्य ुत्कृष्टा सागरोपमकोटीकोटिर्ब न्धस्थितिः । तच्च प्रारंभबन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति यावद - पूर्व करणसंख्येय भागैरिति, केवलिकाले तु तस्योदयः । ( आवनि १८३, हावृ १ पृ ८० ८०) तीर्थंकर अग्लान- अक्लांत भाव से धर्मदेशना करते हुए तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का वेदन करते हैं । भव में तीर्थंकर वर्तमान भव से पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का बंध करते हैं । अथवा जिस भव में इस कर्म का बंध करते हैं, उसके पश्चात् तीसरे अवश्य उस कर्म का वेदन कर मुक्त हो जाते हैं । तीर्थंकरनामगोत्र कर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति एक कोटीकोटि सागरोपम है । जिस समय इसका बंध प्रारंभ होता है, उस समय से लेकर अपूर्वकरण (क्षपकश्रेणी) के संख्येयभाग तक इस कर्मप्रकृति का सतत उपचय होता रहता है और केवलज्ञान की अवस्था में इसका उदय होता है । यही भाव तीर्थंकर की अवस्था है । इससे पूर्व द्रव्य तीर्थंकर होते हैं । ३. तीर्थंकर और ज्ञान उदिआ परीसहा सिं पराइआ ते अ जिणवरिदेहि । नव जीवाइपयत्थे उवलभिऊणं च निक्खता ॥ पढमस्स बारसंगं सेसाणिक्कारसंग सुयलंभो ।''" ( आवनि २३५, २३६ ) सभी तीर्थंकर निष्क्रमणकाल में जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे । प्रथम तीर्थंकर पूर्वभव में बारह अंगों तथा शेष तेईस तीर्थंकर ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे। सभी ने शीत, उष्ण आदि परीषहों को पराजित किया । ३०२ सुतलंभे उसभसामी पुव्वभवे चोदसपुब्वी, अवसेसा एक्कारसंगी । ( आवचू १ पृ १५८ ) तीर्थंकर ऋषभ पूर्व भव में चतुर्दशपूर्वी थे, शेष तेईस तीर्थंकर आचार आदि ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे । तिहि नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव हुंति गिहवासे । पडवणंमि चरिते चउनाणी जाव छउमत्था || ( आवभा ११० ) Jain Education International लोकांतिक देवों द्वारा संबोध जब तक तीर्थंकर गृहवास में रहते हैं तब तक उनमें मति, श्रुत और अवधि – ये तीन ज्ञान होते हैं। जब वे प्रव्रजित होते हैं, तब उनको मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । ये चारों ज्ञान उनमें छद्मस्थ अवस्था तक रहते हैं । ४. तीर्थंकर को माता के स्वप्न गय वसह सीह अभिसेअ दाम ससि दिणयरं भयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिंहिं च ॥ ( आवमा ४६ ) प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती १. गज २. वृषभ ३. सिंह ४. अभिषेक (श्री) ८. ध्वज ९. कुम्भ १०. पद्मसरोवर ११. सागर १२. विमान भवन १३. रत्नराशि १४. अग्नि ५. माला ६. चन्द्र ७. सूर्य ५. लोकांतिक देवों द्वारा संबोध सव्वेवि सयंबुद्धा लोगंतिअबोहिआ य जीएणं .... सारस्यमाइच्चा वही वरुणा य गद्दतोया य । तुनिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ।। एए देवनिकाया भयवं बोहिति जिणर्वारिदं तु । सव्वजगज्जीवहि भयवं ! तित्थं पवतेहि ॥ ( आवनि २१२, २१४, २१५) सब तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं, फिर भी लोकांतिक देव - सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्नि और रिष्ट अपनी मर्यादा परम्परा के अनुसार तीर्थंकरों को संबोधित करते हैं - 'भंते ! जगत् के हित के लिए तीर्थ का प्रवर्तन करें ।' ६. तीर्थंकर के सामायिक चारित्र For Private & Personal Use Only सव्वतित्थगरावि य णं सामाइयं करेमाणा भणति करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि । ( आवचू १ पृ १६१) सब तीर्थंकर प्रव्रज्या काल में - " मैं सामायिक की साधना में उपस्थित होता हूं, सर्व पापकारी प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान करता हूं" - इस पाठ का उच्चारण करते हैं । www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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