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________________ तीर्थं २. भावतीर्थ - शांतितीर्थ, ब्रह्म, आत्मा । यह स्व और पर की शांति का हेतु है । द्रव्यतीर्थं दाहो मं हाइछेअ मलपवाहणं चैव । तिहि अत्थेहि निउत्तं तम्हा तं दव्वओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६६ ) द्रव्यतीर्थ से दाह-उपशम- शारीरिक ताप का शमन, तृषा आदि का अपनयन और मल का शोधन होता है इसलिए नदी आदि का घाट द्रव्यतीर्थ है । भावतीर्थ ३०० ३. तीर्थ को प्रणाम क्यों ? तित्थपणामं काउं कहेइ ॥ तप्पुब्विया अरया पूइयपूता य विणयकम्मं च । किच्चऽवि जह कह कहए णमए तहा तित्थं ॥ ( आवनि ५६६,५६७) तीर्थंकर तीर्थ को प्रणाम कर प्रवचन करते हैं ( यह नियुक्तिकार की मान्यता है ) । तीर्थ को प्रणाम करने के प्रयोजन - कोहंमि उ निग्रहिए दाहस्स पसमणं हवइ तत्थं । लोहंमि उ निग्गहिए हा अणं होई ॥ अहिं कम्मर बहुएहि भवेहि संचिअं जम्हा | तवसंजमेण धुव्वइ तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६७, १०६८) निग्रह से द्वेषदाह का उपशम होता है। लोभनिग्रह से तृष्णा - आसक्ति का छेदन होता है । तप और संयम से अनेक भवों में संचित आठ प्रकार की कर्मरजों का शोधन होता है । इस प्रकार मोक्ष साधक भावों का प्रतिपादक प्रवचन भावतीर्थ है । दंसणनाणचरित्सु निउत्तं जिणवरे हि सव्र्व्वेहि । तिसु अत्थेसु निउत्तं तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६९ ) दर्शन, ज्ञान, चारित्र - इन तीन अर्थों में नियुक्त होने से सभी तीर्थंकरों का प्रवचन भावतीर्थ है । धम्मे हर बम्भे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे । ओ विमल विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोसं । एवं सिणा कुसलेहि दिट्ठ, महासिणाणं इसिणं पसत्थं । सहाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाण पत्ता ॥ ( उ १२/४६, ४७ ) अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय है । ब्रह्मचर्यं मेरा शांतितीर्थ है, जहां नहाकर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूं । यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा दृष्ट है। यह महास्नान है । अतः ऋषियों के लिए यही प्रशस्त । इस धर्म - नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तमस्थान (मुक्ति) को प्राप्त हुए । Jain Education International • तीर्थ के कारण ही तीर्थंकर कहलाते हैं । पूजितपूजा - अर्हत् स्वयं पूजनीय होते हैं । उनके द्वारा तीर्थ की पूजा होने से तीर्थ की प्रभावना वृद्धगत होती है । ० धर्म का मूल विनय है - इसकी प्रस्थापना होती है । तीर्थंकर - अर्हत्, प्रवचनकार, तीर्थ के प्रवर्तक | ( व्र. लब्धि ) o १. तीर्थ का प्रवर्तन * तीर्थंकर एक लब्धि २. तीर्थंकर नामगोत्र का बंध * वैयावृत्य से तीर्थंकर नामगोत्र का बंध ३. तीर्थंकर और ज्ञान * तीर्थंकर में अवधिज्ञान को नियमा ४. तीर्थंकर की माता के स्वप्न ५. लोकान्तिक देवों द्वारा संबोध * तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध ६. तीर्थंकर के सामायिक चारित्र ७. तीर्थंकरों के अतिशय ८. तीर्थंकर के उपदेश का हेतु ९. तीर्थंकर की भाषा * तीर्थंकर और पूर्व देशना * तीर्थंकर और अर्थागम * तीर्थंकर और प्रकीर्णक तीर्थंकर १०. तीर्थंकर त्राता ११. कैवल्यकाल १२. तीर्थंकर और अनशन १३, तीर्थंकर की शुभ कर्मप्रकृतियां For Private & Personal Use Only ( ब्र. वैयावृत्य ) ( ब्र. अवधिज्ञान ) (प्र. सिद्ध) (द्र. पूर्व) (व्र. आगम ) (प्र. अंगबाह्य) * तीर्थंकर और प्रतिक्रमण आदि का क्रम ( द्र. शासनभेद ) www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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