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________________ - जीवनिकाय १.२८८ ज्ञान मूलबीज--- जिसका मूल ही बीज हो, जैसे उत्पलकंद अनन्त वनस्पतिकायिक जीवों के शरीर आदि। एक वायुकायिक जीव का शरीर । पर्वबीज-जिसका पर्व ही बीज हो, जैसे इक्षु आदि । असंख्य वायुकायिक जीवों के शरीर= स्कन्धबीज--जिसका स्कन्ध ही बीज हो, जैसे थूहर, एक तेजस्कायिक जीव का शरीर। कपित्थ आदि । असंख्य तेजस्कायिक जीवों के शरीर बीजरुह- जो बीज से उत्पन्न हो, जैसे शालि, गेहूं आदि। एक अप्कायिक जीव का शरीर । संमूच्छिम-जो बीज के बिना पृथ्वी, पानी आदि कारणों असंख्य अप्कायिक जीवों के शरीर= को प्राप्त कर उत्पन्न हो, जैसे पद्मिनी आदि एक पृथ्वीकायिक जीव का शरीर । तृण-दूब, दर्भ आदि सभी प्रकार के तृण । ६. पृथ्वी आदि में उच्छ्वास आदि अव्यक्त लता-सब प्रकार की लताएं । चित्तमात्रमेव तेषां पृथिवीकायिनां जीवितलक्षणं, न वनस्पति की दस अवस्थाएं पुनरुच्छ्वासादीनि विद्यन्ते । (दजिचू पृ १३६) वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया पृथ्वीकाय आदि पांच जीवनिकायों में चैतन्य अल्पभवंति-तं जहा विकसित होता है। उनमें उच्छवास, निमेष आदि जीव मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य। के व्यक्त चिह्न नहीं होते। पत्ते पूप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ।। १०. सघन मूर्छा का हेतु (दजिचू पृ १३८) जहा पुरिसस्स मज्जपाणविसोवयोग-सप्पावराहवनस्पति की दस अवस्थाएं हैं ---- हिप्पूरभक्खण मुच्छादीहिं चेतोविघातकारणे हि जुगपद१. मूल ६. प्रवाल भिभूतस्स चित्तं मत्तं एवं पुढविक्कातियाणं । २. कंद ७. पत्र (दअच पृ ७४) ३. स्कंध ८. पुष्प जिस प्रकार चित्त के विघातक कारणों से अभिभूत ४. त्वचा ९. फल और मनुष्य का चित्त मूच्छित हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरण ५. शाखा १० बीज। के प्रबलतम उदय से पृथिवी आदि एकेन्द्रिय जीवों का जोणिब्भूते बीए जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । चैतन्य सदा मूच्छित रहता है। इनके चैतन्य का विकास जो वि य मुले जीवो सो वि य पत्ते पढमयाए॥ न्यूनतम हाता है। (दनि १४२) ११. पृथ्वी आदि जीवों की दृश्यता योनिभूत बीज में बीज का जीव जन्म लेता है, ताणि पुण असंखेज्जाणि समुदिताणि चक्खुविसयअथवा दूसरा जीव जन्म लेता है। प्रारम्भ में मूल में जो मागच्छति । (दअचू पृ७४) जीव है, पत्ते में भी वही जीव है। मिट्टी के कण, जल की बूंद और अग्नि की चिन८. पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की अवगाहना । गारी में असंख्य जीव होते हैं। इनका एक शरीर दृश्य नहीं बनता। इनके असंख्य शरीरों का समुदय ही हमें पृथिवीकायिकादीनां त्वंगुलासंख्येय भागमात्रतया दीख सकता है। ...तुल्यायामप्यवगाहनायां विशेषः । ज्ञातधर्मकथा- छठा अंग। (द्र. अंगप्रविष्ट) वणऽणंतसरीराण एगाणिलसरीरगं पमाणेण । अणलोदगपुढवीणं असंखगुणिया भवे वुड्ढी ॥ ज्ञान-ज्ञेय का बोध कराने वाला साधन । (अनुहावृ पृ ८०) । १. ज्ञान का निर्वचन पृथ्वीकायिक आदि सभी एकेन्द्रिय जीवों की अव- परिभाषा गाहना अंगुल का असंख्येय भाग मात्र होती है, फिर भी। २. ज्ञान के पांच प्रकार उनमें कुछ अन्तर होता है • चार ज्ञान स्वार्थ, श्रुतज्ञान परार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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