SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म १८० ज्ञानावरण कर्म ११. अन्तराय कर्म | २. कर्मबन्ध का हेतु और प्रकार ____ * सेवा से लाभान्तराय कर्म का क्षय (द्र. वैयावृत्य) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं। १२. कर्म-प्रकृतियों का उपक्रम (उ ३२७) १३. कर्म एकक्षेत्रावगाही राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। १४. सब आत्मप्रदेशों से कर्म बंध कर्मणां चतुःप्रकारो बंधो भवति-प्रकृतिबंध: १५. आत्मप्रदेश-कर्मप्रदेश-परिमाण स्थितिबंध अनुभागबंधः प्रदेशबंधः। (उचू पृ २७७) १६. कर्म-अनुभाग का प्रदेश-परिमाण कर्मबंध के चार प्रकार हैं१७. एक समय में गृहीत कर्मप्रदेश-परिमाण १. प्रकृतिबंध-कर्मों का स्वभाव और कर्म के १८. कर्मबन्ध: सूचीकलाप की उपमा भेद। १९. उदय से पूर्व कर्म की अवस्थाएं २. स्थितिबंध-कर्मों का आत्मा के साथ बंधे रहने २०. कर्मभोग की प्रक्रिया का कालमान । २१. कर्म-संक्रमण की प्रक्रिया ३. अनुभागबंध- कर्मों का शुभ-अशुभ विपाक । २२. कर्मों की स्थिति ४. प्रदेशबंध-जीवप्रदेश और कर्मपुद्गलों का २३. अबाधा काल संबंध । २४. संक्लिष्ट परिणाम और स्थितिबंध जोगा पयडिपएसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ । २५. पुण्यकर्म, पापकर्म, नोकर्म (उशाव प १९०) २६. वीतराग के कर्मबंध योग से कर्मों का प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता २७. कम और शरीर का अनादि संबंध है। कषाय से कर्मों का स्थितिबंध और अनुभागबंध २८. आत्मा और कर्म का अनादि संबंध होता है। २९. अनादि संबंध का अन्त कसे? ३. कर्म के प्रकार ३०. संसारी आत्मा कंचित् मूर्त नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा । ३१. कर्म की मूर्तता के हेतु वेयणिज्ज तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ।। ३२. मूतं से अमूत्त का अनुग्रह-निग्रह नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । ३३. आत्मा और कर्म सहगामी एवमेयाइ कम्माइं, अद्वैव उ समासओ ।। ३४. जीव की विविधता का हेतु : कर्म (उ ३३।२,३) * कर्म के अस्तित्व की सिद्धि (व. गणधर) | ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, * आश्रव से कर्मबंध (द. आश्रव) | नाम, गोत्र और अन्तराय-ये आठ प्रकार के कर्म हैं। * कर्मबंध और गणस्थान (द्र. गुणस्थान) ४. ज्ञानावरण कर्म * कर्म के उपशम-क्षय की प्रक्रिया (द्र. गुणस्थान) * कर्मक्षय से गुणों की प्राप्ति ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्--अवबोधस्तस्य आवियते --- (द्र. सिद्ध) सदप्याच्छाद्यतेऽनेन पटेनेव विवस्वत्प्रकाश इत्यावरणीयम् । (उशावृ प ६४१) १. कर्म का निर्वचन जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। जैसे क्रियते -मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनात्मना वस्त्र सूर्य के प्रकाश को आवत करता है, वैसे ही जो निर्वर्त्यत इति कर्म । (उशाव प ७२) पुद्गल-स्कन्ध ज्ञान को आवृत करता है, वह ज्ञानावरमिथ्यात्व, अविरात, कषाय और योग-इन आश्रवों णीय कम है। से अनुगत आत्मा द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ (उ ३३।४) / - .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy