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________________ आचार्य आचार्य के प्रायोग्य आहार २. भाचार्य के उपमान ४. आचार्य का वैयावृत्त्य जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु । जहाहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरिओ सूयसीलबुद्धिए विरायई सुरमझे व इंदो॥ एवायरियं उवचिएज्जा अणंतनाणोवगओ वि संतो।। (द ९।१।१४) (द ९।१।११) जैसे दिन में प्रदीप्त होता हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण विविध आहुति और मन्त्र (भरतक्षेत्र) को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रुत, शील पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है. वैसे दी और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करते। शिष्य अनन्तज्ञान संपन्न होते हए भी आचार्य की विनयहैं और जिस प्रकार देवताओं के बीच इन्द्र शोभित होता पूर्वक सेवा करे। है है, उसी प्रकार साधुओं के बीच आचार्य सुशोभित होते आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। आलोइयं इंगियमेव नच्चा, जो छंदमाराहयइ स पुज्जो ॥ जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा । __ (द ९।३।१) खे सोहई विमले अब्भमूक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ।। जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ (द ९।१२१५) जागरूक रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रूषा करता जिस प्रकार बादलों से मुक्त विमल आकाश में नक्षत्र हुआ जागरूक रहता है, जो आचार्य के आलोकित और और तारागण से परिवत कार्तिक पूर्णिमा का चन्द्रमा इङ्गित को जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता शोभित होता है, उसी प्रकार भिक्षओं के बीच आचार्य है, वह पूज्य है। शोभित होते हैं। ५. आचार्य के प्रायोग्य आहार आचार्य : दीप का दृष्टांत सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूयसेहबहुमाणो। जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दाणवतिसद्धव ड्ढी बुद्धिबलवद्धणं चेव ।। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ।। एएहिं कारणेहि उ केइ सहुस्सवि वयंति अणुकंपा। (अनु ६४३।१) एक दीप सैकड़ों दीपों को प्रदीप्त करता है और गुरुअणुकंपाए पुण गच्छे तित्थे य अणुकंपा ।। स्वयं भी प्रदीप्त रहता है। आचार्य भी अपने ज्ञान के (ओनि ६०९, ६१०) आचार्य के प्रायोग्य आहार की गवेषणा के लाभ --- आलोक से दूसरों को आलोकित करते हैं और स्वयं भी १. मनोज्ञ आहार से सूत्र-अर्थ का स्थिरीकरण सुखआलोकित रहते हैं। पूर्वक होता है। ३. आचार्य का दायित्व २. विनय सामाचारी का पालन होता है। जे माणिया सययं माणयंति जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ३. गुरुपजा सहज संपादित होती है। ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइंदिए सच्चरए स पुज्जो ॥ ४. शैक्ष के मन में आचार्य के प्रति बहमान के भाव (द ९।३।१३) उत्पन्न होते हैं। अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किए जाने पर ५. दाता के मन में श्रद्धाभाव की वृद्धि होती है । जो शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं - श्रुतग्रहण के ६. आचार्य का शारीरिक बल और बुद्धि-बल बढ़ता लिए प्रेरित करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को यत्न क योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो ७. शिष्यों के महान् निर्जरा होती है । आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, --इन कारणों से जो शिष्य गुरु के प्रायोग्य आहार उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यरत आचार्य की गवेषणा करता है, वह गच्छ और तीर्थ की का जो सम्मान करता है, वह पूज्य है। अनुकंपा-- सेवा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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