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________________ आचार्य-उपाध्याय आचार्य आयरिय गिलाणाण य मइला मइला पुणोऽवि धावंति। भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि ईधनराशि को। मा ह गुरूण अवण्णो लोगंमि अजीरणं इयरे । 'यह सर्प छोटा है'-ऐसा जानकर जो उसकी (पिनि २७) आशातना (कदर्थना) करता है, वह प्रवृत्ति उसके अहित आचार्य और रुग्ण मुनि के वस्त्रों का बार-बार के लिए होती है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की प्रक्षालन विहित है। क्योंकि आचार्य के मलिन वस्त्र भी अवहेलना करने वाला ढीठ मुनि संसार में परिभ्रमण लोगों में जुगुप्सा पैदा करते हैं, इससे संघ की अवहेलना करता है। होती है । रुग्ण साधु यदि मलिन वस्त्र पहनता है तो __ आशीविष सर्प अत्यन्त क्रुद्ध होने पर भी 'जीवनउसके अजीर्ण आदि रोगों की संभावना रहती है। नाश' से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आचार्यपाद ६. आचार्य की आराधना के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता। उनकी जो जेण पगारेणं तुस्सइ करण-विणया-ऽणवत्तीहिं। आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। आराहणाए मग्गो सो च्चिय अव्वाहओ तस्स ।। सिया हु से पावय नो डहेज्जा (विभा ९३२) आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । आचार्य की आराधना के उपाय ---- सिया विसं हालहलं न मारे • गुरु द्वारा आदिष्ट कार्य का सम्पादन करना । न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए । ० विनय ---आसन प्रदान करना, पर्युपासना करना। (द ९।१।७) • इंगित का अनुवर्तन करना। संभव है कदाचित् अग्नि न जलाए, संभव है ० जिस उपाय से गुरु प्रसन्न हों, उसी का आचरण आपीविल सर्वपित बोने पर भी न काटे और यह करना। भी संभव है कि हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु ७. आचार्य को आशातना के परिणाम की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है। जे यावि मंदि त्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा। सिया हु सीसेण गिरि पि भिदे हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे । पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया। सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं आयारमंता गुणसुट्टिअप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा।। न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए । जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ। (द ९।१।९) एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं ख मंदे ।। संभव है शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है आसीविसो यावि परं सुरुट्टो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा। सिंह कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है आयरियपाया पुण अप्पसन्ना कि भाले की नोक भेदन न करे, पर गुरु की अवहेलना अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो।। से मोक्ष संभव नहीं है। (द ९।११२-५) ८. आचार्य-उपाध्याय जो मुनि गुरु को 'ये मंद (अल्पप्रज्ञ) हैं' 'ये अल्पवयस्क और अल्पश्रुत हैं,'-ऐसा जानकर उनके उपदेश आयारदेसणाओ आयरिया विणयणादुवज्झाया। को मिथ्या मानते हए उनकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु अत्थपदायगा वा गुरवो सुत्तस्सुवज्झाया ।। की आशातना करते हैं। (विभा ३२००) कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही आचार्य आचार की देशना देते हैं। उपाध्याय मन्द (अल्पप्रज्ञ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए शिक्षा का कार्य करते हैं। भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं । आचारवान और . अथवा आचार्य अर्थपदों की वाचना देते हैं। उपागुणों में सुस्थितात्मा आचार्य, भले फिर वे मन्द हों या ध्याय सूत्रपदों की वाचना देते हैं। प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि को उसी प्रकार नावश्यमाचार्योपाध्यायभिन्नः भवितव्यम्। अपितु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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