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________________ अवधिज्ञान ५८ संबद्ध-असंबद्ध अवधि अथवा असंख्येय योजन दूर जाने पर देख पाता है, यह १५. संबद्ध-असंबद्ध अवधि बाह्यलब्धि अवधिज्ञान है। ___संखिज्जमसंखिज्जो, पुरिसमबाहाइ खित्तो ओही। इसमें पूर्वदष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कुछ संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संबद्धो । हिस्से को जिस एक समय में नहीं देखता, उसी एक समय (आवनि ६७) में कुछ अदृष्टपूर्व को देख लेता है। इस प्रकार एक ही संबद्ध और असंबद्ध - दोनों प्रकार का अवधि क्षेत्र समय में ज्ञान का उत्पाद और प्रतिपात होता है। की दृष्टि से संख्येय अथवा असंख्येय योजन तक जानता बाहिरओ एगदिसो फड्डोही वाऽहवा असंबद्धो।'' बाह्यावधिर्देशावधिरयम्। (विभा ७४९ मव पृ ३१२) अवधिज्ञानी अपने जिस ज्ञान से एक दिशा में स्थित पुरुष आदि के अबाधा (देह और अवधिज्ञान से पदार्थों को जानता है अथवा कुछ स्पर्धक विशुद्ध, कुछ प्रकाशित क्षेत्र का अन्तर) का प्रमाण भी संख्येय या स्पर्धक अविशुद्ध होने से अनेक दिशाओं में अंतर सहित असंख्येय योजन है। यह अन्तर असम्बद्ध अवधि में ही जानता है अथवा क्षेत्रीय व्यवधान के कारण असंबद्ध होता है, सम्बद्ध अवधि में नहीं। यह अवधि लोक और जानता है, वह बाह्यावधि कहलाता है। बाह्यावधि को अलोक में भी सम्बद्ध-असम्बद्ध होता है । देशावधि कहा जाता है। ओही पुरिसे कोई संबद्धो जह पभा पदीवम्मि । अभितरलद्धीए उ तदुभयं नत्थि एगसमएणं । दूरंधयारदीवयदरिसणमिव कोइ विच्छिण्णो॥ उप्पा पडिवाओऽविय, एगयरो एगसमएणं । (विभा ७७३) अभितरलद्धी नाम जत्थ से ठियस्स ओहिनाणं किसी अवधिज्ञानी में अवधिज्ञान प्रदीप में प्रभा की गातो आरब्भ ओहिनाणी निरंतर संबद्धं तरह सम्बद्ध होता है -वह ज्ञानी अपने अवस्थिति क्षेत्र संखेज्जमसंखेज वा खेत्तं ओहिणा जाणइ पासइ । से निरन्तर द्रष्टव्य वस्तु को जान लेता है। कोई (आवनि ६३ च १ पृ ६४) अवधिज्ञान अवधिज्ञानी में असम्बद्ध होता है। जैसे दूरी आभ्यन्तरलब्धि में उत्पाद और प्रतिपात-दोनों और अन्धकार के कारण प्रदीप की प्रभा विच्छिन्न हो एक समय में नहीं होते। एक समय में उत्पात अथवा जाती है। प्रतिपात होता है। संखेज्जमसंखेज्ज देहाओ खित्तमंतरं काउं । जिस स्थान में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उस संखेज्जासंखेज्ज पेच्छेज्ज तदंतरमबाहा॥ स्थान से अवधिज्ञानी निरन्तर सम्बद्ध संख्येय अथवा (विभा ७७४) असंख्येय योजन क्षेत्र को अवधि से जानता-देखता है। अवधिज्ञानी की देह से क्षेत्र का अन्तर संख्येय अथवा ___ अयं ह्यभ्यन्तरावधिः प्रदीपप्रभापटलवदवधिमता " असंख्येय योजन है । पुरुष और अबाधा की दृष्टि से इन जीवेन सह सर्वतो नैरन्तर्येण संबद्धोऽखण्डो देशरहित एक दोनों के चार-चार विकल्प बनते हैंस्वरूपः, अत एवायं सम्बद्धावधिरदेशावधिश्चोच्यते । १. संख्येय योजन अन्तर संख्येय अवधि (विभामवृ पृ ३१३) २. संख्येय योजन अन्तर असंख्येय अवधि प्रदीपप्रभा की तरह आभ्यंतर अवधि अवधिज्ञानी से ३. असंख्येय योजन अन्तर संख्येय अवधि निरंतर संबद्ध, अखंड, विभागरहित और एक स्वरूप होने ४. असंख्येय योजन अन्तर असंख्येय अवधि से अदेशावधि (सर्वावधि) कहलाता है। नेरइयदेवतित्थंकरा य, ओहिस्सबाहिरा हुँति । संबद्धाऽसंबद्धो नर-लोयंतेसु होइ चउभंगो। पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति ।। संबद्धो उ अलोए नियमा पुरिसे वि संबद्धो । (नन्दी २२/२) (विभा ७७५) नैरयिक, देव और तीर्थंकर अबाह्य अवधिज्ञान वाले जो अवधि अलोक में सम्बद्ध है, वह पुरुष में भी होते हैं वे सर्वतः देखते हैं । शेष (अंतगत अवधिज्ञान सम्बद्ध ही होता है । लोकान्त और पुरुष की अपेक्षा से वाले) मनुष्य और तिर्यच एक देश से देखते हैं। चार विकल्प बनते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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