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________________ उपयोग की अपेक्षा अवस्थान ५९ अवधिज्ञान १. पुरुष में संबद्ध, लोकान्त में संबद्ध-लोक प्रमाण आधार क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान उत्कृष्टतः तेतीस अवधि । सागरोपम तक अवस्थित रहता है। २. पुरुष में संबद्ध, लोकान्त में असंबद्ध-लोकदेशवर्ती खेत्तगहणणं भवखेत्तस्स गहणं कतं । तं च पडुच्च आभ्यन्तर अवधि । ओहिन्नाणं जहन्नेणं एक्कं समयं होज्जा, उक्कोसेणं तेत्तीसं ३. पुरुष में असंबद्ध, लोकान्त में सम्बद्ध-यह भंग सागरोवमाणि होज्जा। एत्थ एगो समओ तिरियस्स वा शून्य है। मणुयस्स वा भवति । जस्स कस्सइ एक्कंमि समए ओहिण्णाणं उप्पण्णं बितिए समए से आउयं पहीणं चेव । ४. पुरुष में असंबद्ध, लोकान्त में असंबद्ध-बाह्य देवस्स वा मिच्छद्दिहिस्स एगं समयं सम्मत्तं पडिवन्नस्स अवधि। नवरं बितियसमए आउयं पहीणं चेव । उक्कोसयं पण १६. अवधिज्ञान की असंख्येयता-अनंतता तेत्तीससागरोवमियं भवखेत्तावदाणं देवे रइए पडुच्च संखाईआओ खलू, ओहिनाणस्स सव्वपयडीओ। भविज्जा। (आवचू १ पृ ५८) (आवनि २५) भवक्षेत्र (आधार क्षेत्र) की अपेक्षा अवधिज्ञान की क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैव संख्यातीताः, द्रव्यभावाख्य- अवस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोज्ञेयापेक्षया चानन्ताः। (आवहाव १ पृ १८) पम है। किसी मनुष्य या तिर्यंच को यदि प्रथम समय में क्षेत्र और काल रूप ज्ञेय की अपेक्षा से अवधिज्ञान अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और दूसरे समय में उसकी की प्रकृतियां असंख्य हैं। ज्ञेय के भेद के आधार पर ज्ञान आयु क्षीण हो जाती है तो उसके अवधिज्ञान की स्थिति के भेद होते हैं। अतः द्रव्य और भाव रूप ज्ञेय की अपेक्षा एक समय की होती है। से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत हैं। कोई मिथ्यादृष्टि देव जब प्रथम समय में सम्यक्त्व वित्थरेण खयोवसमविसेसतो असंखेज्जविधमोधिण्णाण। प्राप्त करता है और दूसरे समय में उसकी आयु क्षीण हो जाती है, तब एक समय का अवधिज्ञान होता है। अवधि (नन्दीचू पृ २०) का उत्कृष्ट क्षेत्र-अवस्थान देव और नारक की अपेक्षा क्षयोपशम के तारतम्य के आधार पर अवधिज्ञान तेतीस सागरोपम का है। असंख्य प्रकार का है। उपयोग की अपेक्षा अवस्थान १७. अवस्थित-अनवस्थित अवधि दव्वे भिषण मुहत्तो, पज्जवलंभे य सत्तटू । द्रव्यादिषु कियन्तं कालमप्रतिपतित: सन्नुपयोगतो (आवनि ५७) लब्धितश्चाऽऽस्ते ? इत्येवमवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः । तथा अवधिज्ञानी उपयोग की अपेक्षा एक द्रव्य में अन्तवर्धमानतया हीयमानतया च चलोऽनवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः। मुंहत्तं और एक पर्याय में सात-आठ समय तक अवस्थित (विभामवृ पृ. २६२) रह सकता है। एक द्रव्य अथवा एक पर्याय में लब्धि और उपयोग भिन्नमुहुत्तं ओहिण्णाणी एकदव्वे णिरंतरोवउत्तो की अपेक्षा से अवधिज्ञान जितने समय तक स्थिर रहता अच्छेज्जा । ततो परेण निरोहमसहमाणो ण सबके ति तंमि है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है। दव्वमि उवउत्तो अच्छिउं । जह कोइ पुरिसो अईव सण्हसूईए पासछिड़े णिरंतरोवउत्तो न सकेति दीहं कालं कोई अवधिज्ञान प्राप्ति के पश्चात् क्षेत्र आदि की अपेक्षा से बढ़ता है और कोई अवधिज्ञान क्षीण होता अच्छितुं। (आवचू १ पृ ५८) अवधिज्ञानी का एक द्रव्य में अन्तर्महर्त तक निरन्तर चला जाता है ---यही चल अथवा अनवस्थित अवधिज्ञान उपयोग रह सकता है। उससे आगे निरोध को सहन नहीं कर सकता, इसलिए उस द्रव्य में अन्तर्महत से अधिक अवधिज्ञान का अवस्थान : आधार क्षेत्र की अपेक्षा अवस्थित नहीं रह सकता। जैसे-कोई व्यक्ति अत्यन्त खित्तस्स अवदाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं ।... सूक्ष्म सूई के पार्वछिद्र में लम्बे समय तक निरन्तर नहीं (आवनि ५७) देख सकता। अवधिज्ञाना उपय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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