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________________ बाह्यलब्धि-आभ्यतरलब्धि अवधि अवधिज्ञान का क्षयोपशम होता है, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। २. अनानुगामिक ३. मिश्र । इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन जिन आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं प्रकार होते हैं -१. प्रतिपाति २. अप्रतिपाति ३. मिश्र । होता, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता । जीवों के कुछ ये स्पर्धक मनुष्यों और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान में घटित आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, कुछ में नहीं होते हैं। होता। जिन आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता स्पर्धक : तीव. मंद मिश्र है, उन्हें स्पर्धक कहा जाता है। जालंतरत्थदीवप्पहोवमो फडगावही होइ। ___ अवधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्धकरूपतयोत्पद्यते ।। तिव्वो विमलो मंदो मलीमसो मीसरूवो य॥ स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनि (विभा ७४०) र्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । तथा चाह झरोखे की जाली में रखे दीपक की प्रभा के समान जिनभद्रक्षमाश्रमणः स्वोपज्ञभाष्यटीकायां-'स्पर्धकमवधि स्पर्धक अवधि होता है। विशुद्ध क्षयोपशमजन्य स्पर्धकों विच्छेदविशेषः' इति । तानि चैकजीवस्य सङ्खयेयान्य से उत्पन्न निर्मल अवधिज्ञान तीव्र कहलाता है। अविशुद्ध सङ्खयेयानि वा भवन्ति; यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमपीठि क्षयोपशमजन्य स्पर्धकों से होने वाला मलिन अवधिज्ञान कायां -"फड्डा य असङ्खेज्जा सङ खेज्जा आवि एग मन्द कहलाता है। मध्यम क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान मिश्र जीवस्स।" स्पद्धकानि विचित्ररूपाणि। (नन्दामवृप ८३] (तीव्र-मंद) कहलाता है। __ अवधिज्ञान के अनेक प्रकार हैं। उत्पन्न होता हुआ स्पर्धकों के स्थान कोई अवधिज्ञान स्पर्धक रूप में उत्पन्न होता है। जैसे ___ कानिचित् पर्यन्तवत्तिष्वात्मप्रदेशेषुत्पद्यन्ते, तत्रापि झरोखे की जाली में से निकलने वाली दीपक की प्रभा कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिका प्रतिनियत आकार होता है, वैसे ही स्पर्धक अवधि चिदुपरितनभागे तथा कानिचिन्मध्यवत्तिष्वात्मप्रदेशेषु । ज्ञान की प्रभा का प्रतिनियत विच्छेद करते हैं । वे स्पर्धक (नन्दीमवृ प ८३) एक जीव के संख्येय अथवा असंख्येय होते हैं । वे विचित्र अवधिज्ञान के कुछ स्पर्धक पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में (विभिन्न) आकार वाले होते हैं। उत्पन्न होते हैं । कुछ आगे के आत्मप्रदेशों में, कुछ पृष्ठअसंख्येय स्पर्धक वर्ती आत्मप्रदेशों में, कुछ अधोभाग में, कुछ उपरितन भाग में तथा कुछ मध्यवती आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होते फड्डा य असंखिज्जा, संखेज्जा यावि एगजीवस्स । एगप्फडडवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो ।। (आवनि ६०) १४. बाह्यलब्धि-आभ्यंतर लब्धि अवधि .."उवउज्जइ जुगवं चिय जह समयं दोहिं नयणेहिं ।।। बाहिरलंभे भज्जो, दव्वे खित्ते य कालभावे य । (विभा ७४१) उप्पा पडिवाओऽवि य तं उभयं एगसमएणं ।। एक जीव के असंख्येय अयवा संख्येय स्पर्धक होते हैं । बाहिरलंभो नाम जत्थ से ठियस्स ओहिण्णाणं समुएक स्पर्धक का उपयोग करने वाला जीव निश्चित रूप प्पण्णं तम्मि ठाणे सो ओहिण्णाणी न किंचि पासति । तं से एक साथ सब स्पर्धकों का उपयोग करता है। पुण ठाणं जाहे अंतरियं होति, तं जहा-अंगुलेण वा जैसे कि एक आंख का उपयोग करने वाला व्यक्ति दोनों अंगुलपुहत्तेण वा एवं जाव संखेज्जेहि वा असंखेज्जेहि आंखों से उपयुक्त होता है-एक साथ देखता है। वा जोधणेहि, ताहे पासइ । जेसिं दव्ववेत्तकालभावाणं स्पर्धक : आनुगामिक आदि काणिवि एगसमएण चेव पुव्वदिट्राणि ण पासति । काणिइ पुण अदिट्टपुव्वाणि पासति । फडा य आणगामी अणाणगामी य मीसया चेव । (आवनि ६२ च १ ६२,६३) पडिवाई अपडिवाई मीसा य मणुस्स-तेरिच्छे । जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हआ है, उसी स्थान (आवनि ६१) पर स्थित अवधिज्ञानी कुछ नहीं देख पाता। उस स्थान स्पर्धक तीन प्रकार के होते हैं-१. आनुगामिक से हटकर अंगुल, अंगुलपृथक्त्व यावत् संख्येय योजन 'पासात। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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