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________________ (१३) मेरे हाथ से प्रतिष्ठा अञ्जनशलाका आदि कार्य न होंगे'। इसी तरह 'सूरत' में एक श्रावक के प्रश्न करने पर कहा था कि-'ाजी में तीन वर्ष पर्यन्त फिर विहारादि करूँगा ' । इन दोनों वाक्यों से आपने अपने आयुष्य का समय गर्जित रीति से श्रावक और साधुओं को बतला दिया था और हुआ भी ऐसाही । पकी पैदल विहारशक्ति के अगाड़ी युवा साधु जी परिश्रान्त हो जाते थे, इस प्रकार यापने अन्तिम अवस्था पर्यन्त विहार किया, चाहे जितना कठिन से कठिन शीत पड़े परन्तु थप ध्यान और प्रतिक्रमण यदि क्रियाएँ उघाने शरीर से ही करते थे और अपने जीवन में फुलाटीन की साढ़े चार हाथ एक काँबली और उतनी ही बड़ी दो चादर के सिवा अधिक जी नहीं छोड़ते थे। आपने करीब ढाई सौ मनुष्यों को दीक्षा दी होगी लेकिन कितनेही यापकी उत्कृष्ट क्रिया को पालन नहीं कर सके, इसलिये शिथिलाचारी संवेगी और ढुंढकों में चले गये, परन्तु इस समय जी ध्यापके दस्त से दीक्षित चालीस साधु और साध्वियाँ हैं जो कि ग्राम ग्राम विहार कर अनेक उपकार कर रहे हैं । सत्पुरुषों का मुख्य धर्म यह है कि जन्यजीवों के हितार्थ उपकार बुद्धि से नाना ग्रन्थ बनाना, जिससे लोगों को शुद्ध धार्मिक पथ ( रास्ता ) सूऊ पड़े । इसी लिये हमारे पूर्वकालीन आचार्यवर्यों ने अनेक ग्रन्थ बनाकर अपरिमित उपकार किया है तभी हम अपने धर्म को समऊकर दृढ श्रद्धावान् बने हुए हैं, और जो कोई धर्म पर आक्षेप करता है सो उसको उन ग्रन्थों के द्वारा परास्त कर लेते हैं, यदि महर्षियों के निर्मित ग्रन्थरत्न न होते तो आज हम कुछ जी अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते, इसी लिये जो जो विद्वान आचार्य आदि होते हैं वे समयानुकूल लोगों के हित के लिये ग्रन्थ बनाते हैं । इसी शैली के अनुसार सूरीजी महाराज ने जी लोकोपयोगी अनेक ग्रन्थ बनाये हैं । सूरीजी महाराज के निर्मित संस्कृत - प्राकृत- जाषामयग्रन्थ १ ‘अनिधानराजेन्द्र' प्राकृतमहाकोश- इस कोश की रचना बहुत सुन्दरता से की गई है अर्थात् जो बात देखना हो वह उसी शब्द पर मिल सकती है। संदर्भ इसका इस प्रकार रक्खा गया है - पहिले तो यकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृतशब्द, उसके बाद उनका अनुवाद संस्कृत में, फिर व्युत्पत्ति, लिङ्ग निर्देश, और उनका अर्थ जैसा जैनागमों में मिल स कता है वैसाही जिन्न २ रूप से दिखला दिया गया है । बड़े बड़े शब्दों पर अधिकार सूची नम्बरवार दी गयी है, जिससे हर एक बात सुगमता से मिल सकती है। जैनागमों का ऐसा कोई जी विषय नहीं रहा जो इस महाकोश में न आया हो । केवल इस कोश के ही देखने से संपूर्ण जैनागमों का बोध हो सकता है । इसकी श्लोकसंख्या करीब साढ़े चार लाख है, और अकारादि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है । २ 'शब्दाम्बुधि' कोश - इसमें केवल अकारादि अनुक्रम से प्राकृत शब्दों का संग्रह किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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