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________________ रात्रिभोजन नहीं करना,जीवों को जानकर नहीं मारना,चोरी नहीं करना इत्यादि अनेक नियम जिन्होंने श्रापसे लिये हुए हैं और जैनधर्मविषयक दृढ नियमों को परिपालन कर रहे हैं ऐसे आपके उपदेशी केवल जैन ही नहीं हैं किन्तु अन्यमतवाले ली हैं। यति अवस्था में जी आपने सम्बत् १०४ का चौमासा मेवाफ देशस्थ शहर 'आकोला' में किया था। फिर क्रमशः इन्दौर, उज्जैन, मन्दसोर, उदयपुर, नागौर, जेसलमेर,पाली, जोधपुर, किसनगढ़, चित्तोर, सोजत, शंजुगढ़, बीकानेर, सादरी, जिलामे, रतलाम, अजमेर, जालोर, घाणेराव, जावरा इत्यादि शहरों में चौमासा कर सैंकों नवनीरु महानुजावों को जैनधर्म के संमुख किया। आपकी विद्वत्ता सारे भारतवर्ष में प्रख्यात थी, कोई जी प्रायः ऐसा न होगा जो आपके नाम से परिचित न हो।ज्योतिषशास्त्र में जी आपका पूर्ण ज्ञान था, जहाँ जहाँ आपके दिये हुए मुहूर्त से प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाकाएँ दुई हैं वहाँ हजारों जनसमूह के एकत्र होने पर जी किसी का शिर जी नहीं दुखा। आपके हाथ से कम से कम बाईस अञ्जनशलाकाएँ तो वझी बड़ी हुई, जिनमें हजारों रुपये की आमद हुई और छोटी २ अञ्जनशलाका या प्रतिष्ठा तो करीब सौ १०० हुई होंगी । इसके अतिरिक्त ज्ञानजकारों की स्थापना, अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्रपूजा, उद्यापन, जीर्णोद्धार, जिनालय, उपाश्रय, तीर्थसंघ थादि सत्कार्यों में सूरीजी महाराज के उपदेश से जव्यवर्गों ने हजारों रुपये खर्च किये हैं और अब जी आपके प्रताप से हजारों रुपये सत्कार्यो में खर्च किये जारहे हैं। आपकी साधुक्रिया अत्यन्त कविन थी इस बात को तो श्राबालवृद्ध सनी जानते हैं, यहाँ तक कि वयोवृद्ध होने पर नी थाप अपना उपकरणादिनार सुशिष्य साधु को नी नहीं देते थे तो गृहस्थों को देने की तो श्राशाही कैसे संभावित हो सकती है। क्रियाजद्धार करने के पीछे तो आपने शिथिलमार्गों का जी सहारा नहीं लिया और न वैसा उपदेशही किसीको दिया, किन्तु ज्ञानसहित सक्रियापरिपालन करने में श्राप बमेही उ. स्कण्ठित रहा करते थे । और वैसी ही क्रिया करने में उद्यत जी रहते थे, इसीसे आपकी उत्तमता देशान्तरों में जी सर्वत्र जाहिर थी। प्रमाद शत्रु को तो श्राप हरदम दबाया ही करते थे, इसीलिये साधुक्रिया से बचे हुए काल में शिष्यों को पढ़ाना और शास्त्रविचार करना, या धार्मिक चर्चा करना यही आपका मुख्य कार्य था। दिन को सोना नहीं, और रात्रि को जी एक प्रहर निसा खेकर ध्यानमग्न रहना, इसी में आपका समय निर्गमन होता था; इसीलिये समाधियोग और अनुभव विचार आपसे बढ़कर इस समय और किसी में नहीं पाया जाता है । शहर 'वानगर के चौमासे में मरुधरदेशस्थ गाँव पलट' के श्रावक अपने गाँव में प्रतिछा कराने के लिये आपसे विनती करने थाये थे, उनसे आपने यह कह दिया था कि 'अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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