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________________ जैन आगम : वनस्पति कोश 273 में पाया जाता है, किन्तु विशेषरूप से प० समुद्र के किनारे के जंगलों में अधिक पाया जाता है। अन्य भाषाओं में नाम हि०-मटर, मट्टर। बं०-मटर, मठर, वांटुला मटर । म०-वाटाणे । गु०-मटणा, वटाणा । क०-वटाणि कडले। ते०-पेद्दईब्ब | गुण्डु चणगलु, पेछइवा । म०-मटर यू०-मटर कविली। फा०-जलवान, कसंग। अ०-खलज, हब्बुल, बकर | अं0-Field Pae (फील्ड पी) ले०-Pisumsativum (पाइसमसाटिवम)। उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में प्रतिवर्ष बोया जाता है। विवरण-इसका क्षुप वर्षायु तथा सूत्रों के द्वारा आरोहणशील होता है । पत्ते पक्षवत्, पत्रक १ से ३ जोडे, अंतिम सूत्रों में परिवर्तित तथा पत्राधार फूला हुआ होता है। पुष्पअनियमिताकार द्विलिंगीएवं अपने वर्ग विशिष्ट स्वरूप का होता है। फली अनेक बीजों से युक्त, चिपटी, लंबी तथा अग्र पर कुछ टेढ़ी नोकदार होती है। इसके अनेक प्रकार पाए जाते हैं। (भाव०नि० धान्यवर्ग:पृ० ६४६, ६५०) विमर्श-स्थानांग वृत्ति पत्र ३२७ में सतीन का अर्थ तूवर किया है-सईणा तुवरी। आयुर्वेद के सभी निघंटु और शब्द कोशों में सतीन को कलाय का पर्यायवाची मानकर मटर अर्थ किया है। 366. Alstonia scholaris R. Br. (शडिय) सत्तवण्ण सत्तवण्ण (सप्तपर्ण) छतिवन, सतौना जीवा० ३/५८२ जं० २/६ सप्तपर्णो विशालत्वक, शारदो विषमच्छदः ।।७४|| सप्तपर्ण, विशालत्वक, शारद तथा विषमच्छद ये सब छतिवन के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४६) अन्य भाषाओं में नाम ___हि०-सतौना, सतवन, छतिवन सतिवन। बं०-छातिम। म०-सातवीण। गु०-सातवण, क०हाले। ते०-एडाकुलरि। ता०-एलिलैप्पालै। ले०AlstoniaScholaris R.Br (एलस्टोनिया स्कोलेरिस्) Fam. Apocynaceae (एपोसाइनेसी)। उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष प्रायः सब आर्द्र प्रान्तों विवरण-इसका वृक्ष सुंदर, विशाल, सीधा, सदाहरित एवं क्षीरयुक्त होता है। शाखायें तथा पत्ते चक्रिक क्रम में निकले रहते हैं। पत्ते प्रति चक्र में ३ से ७. प्रायः ६, चिकने, आयताकार-भालाकार या अभि अण्डाकार ऊपर से चमकीले किन्तु नीचे से श्वेताभ ४ से ८ इंच लंबे तथा ६ से १३ मि०मी० लंबे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प हरिताभ श्वेत तथा गुच्छों में आते हैं। फली दो-दो एक साथ, नीचे लटकी हई १ से २ फीट लंबी तथा ३ मि०मी० व्यास की होती है। बीज ६ मि०मी० लंबे चिपटे तथा रोमश होते हैं। छाल टहनियों की ३ से ४ मि०मी० एवं काण्ड की ७ मि०मी० मोटी होती है। बाहर से नवीन छाल गहरे धूसर या भूरे रंग की तथा पुरानी बहुत खुरदरी, असमान, फटी हुई होती है तथा उन पर अनेक गोल या आडे, धूसर या सफेद धब्बे रहते हैं। अन्दर से यह भूरे पीताभ या गहरे धूसराभ भूरे रंग की कुछ धारीदार तथा गढेदार रहती है। यह गंधहीन एवं स्वाद में तिक्त रहती है। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४६, ५४७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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